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11.3.12

The Flipkart Connection

मेरी लिए बेहद खुशी का दिन था वो जब मेरा काव्य संग्रह "एक पल की उम्र लेकर" भारत के लीडिंग ऑनलाइन बुक स्टोर फ्लिप्कार्ट पर उपलब्ध हुई. लगभग १० महीनों में इसकी लगभग १४० प्रतियाँ इस माध्यम से बिकी. जो मुझ जैसे नए लेखक के लिए गर्व की बात है. फिलहाल पुस्तक कुछ तकनिकी कारणों के चलते आउट ऑफ स्टॉक है पर जल्द ही उपलब्ध होगी. एक खूबसूरत याद की तरह मैंने सहेज लिया है ये पेज




एक पल की उम्र लेकर कविता कोष पर

मेरी पुस्तक "एक पल की उम्र लेकर" का ई संस्करण अब कविता कोष पर उपलब्ध है, काव्य संकलन में संकलित अन्य कविताओं को पढ़ने के लिए निम्न लिंक पर जाएँ -


एक पल की उम्र लेकर
-सजीव सारथी
ई संस्करण - कविता कोष

दस कवितायेँ दस गीत सुजॉय के चुने हुए

मित्र सुजॉय ने चुनी दस कवितायेँ मेरी पुस्तक 'एक पल की उम्र लेकर" से और उन्हें जोड़ा दस खूबसूरत गीतों से -

आगे भी जाने न तू
- कविता एक पल की उम्र लेकर

दिन ढल जाये
- कविता सरफिरा है वक्त

तेरे पास आके मेरा वक्त गुजर जाता है
- कविता लम्स तुम्हारा

दिल ढूँढता है
- कविता अवकाश

कभी रात दिन हम दूर थे
-कविता मिलन

फिर किसी शाख ने
- कविता बहुत देर तक

कतरा कतरा
- कविता वोह

कोई होता मेरा अपना
- कविता जंगल

मैं तो हर मोड पर
- कविता दीवारे

एक पल की उम्र लेकर - पाठकों के विचार/समीक्षा - मनीष वन्देमातरम

मुझे आपकी कविता बहुत अच्छी लगी,क्योकि वो हैं ही अच्छी।
मुझे जो अच्छा लगा वो है आपकी भाषा-सहजता और वो बिंब जो हमारे आस-पास
हमेशा मौजूद हैं पर हम उन्हे छोड़ 'कुछ और' के चक्कर में आगे बढ़ जाते
हैं।

मनीष वन्देमातरम
कवि, उत्तर प्रदेश

एक पल की उम्र लेकर - पाठकों के विचार/समीक्षा - डा॰ महेंद्रभटनागर

प्रसिद्ध वेबपत्रिका 'हिन्द युग्म' के 'आवाज़' मंच के अधिष्ठाता-संचालक यशस्वी संगीतकार-गीतकार श्री॰ सजीव सारथी जी का प्रथम प्रकाशित कविता-संग्रह है।

सजीव सारथी जी मूलत: गीतकार हैं; किन्तु प्रस्तुत संग्रह में अत्याधुनिक शैली में लिखित कविताएँ समाविष्ट हैं — कुछ ग़ज़लों को छोड़ कर।

यद्यपि ये रचनाएँ मुक्त-छंद में रचित हैं; किन्तु उनमें एक विशेष लय व प्रवाह है। प्रांजलता के कारण सजीव सारथी जी के काव्य में प्रभविष्णुता द्रष्टव्य है। आम आदमी को उनके काव्य का रसास्वादन करने में कोई बाधा नहीं आती। भाषा-सहजता ने काव्य को सम्प्रेषणीय बनाया है। लोक-प्रचलित शब्दावली उनके काव्य में अनायास उतरी है।

सजीव सारथी जी अपने इर्द-गिर्द की प्रकृति के प्रति बड़ी मार्मिक प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। यथा — सूरज, नदी, साहिल की रेत, बारिश, मिट्टी, सुबह की ताज़गी आदि के प्रति।

उनके काव्य-सरोकार समसामयिक सामाजिक-राजनीतिक परिवेश से भी सम्बद्ध हैं।

मानव-मनोविज्ञान की उन्हें सूक्ष्म पहचान है। 'एक पल की उम्र लेकर' शीर्षक कविता में अनुभूति की गहराई भावक के हृदय को झकझोर देती है :

सुबह के पन्नों पर पायी शाम की ही दास्ताँ
एक पल की उम्र लेकर जब मिला था कारवाँ,
वक्त तो फिर चल दिया एक नयी बहार को
बीता मौसम ढल गया और सूखे पत्ते झर गये,
चलते-चलते मंज़िलों के रास्ते भी थक गये
तब कहीं वो मोड़ जो छूटे थे किसी मुकाम पर
आज फिर से खुल गये, नये क़दमों, नयी मंज़िलों के लिए,
मुझको था ये भरम कि है मुझी से सब रोशनाँ
मैं अगर जो बुझ गया तो फिर कहाँ ये बिजलियाँ
एक नासमझ इतरा रहा था एक पल की उम्र लेकर!

सुकवि सजीव सारथी जी ने अभिनव अभिव्यक्तियों से हिन्दी-कविता को समृद्ध किया है।


डा॰ महेंद्रभटनागर

Ek Pal Ki Umr Lekar - Book Review by Amritbir Kaur

A LIFETIME IN ONE MOMENT


BOOK REVIEW ‘EK PAL KI UMR LEKAR’ BY SAJEEV SARATHIE

We have a moment and a lifetime. A lifetime is a collection of moments, we all know and we all live life like that. Greatness comes to those who live every moment as a lifetime. These are the kind of thoughts brought to our mind by the title ‘Ek Pal ki Umr Lekar’ (Having a moment’s lifetime). Sajeev Sarathie in his maiden collection of poetry in Hindi entitled ‘Ek Pal ki Umr Lekar’ has tried to sum up the whole life in few words. Moreover, doing so in a language other than one’s mother tongue adds to the stature of success. Born in a small town of Kerela, Sajeev Sarathie went on to carve out a niche for himself in the literary world of our national language, Hindi.
He writes in a rhythmical flow with such ease that surpasses some of the native Hindi poets. His anthology begins with a sense of nostalgia in the poem ‘Sooraj’, flows like a river:
“Sadiyon se beh raha hoon
Kisi nadi ki tarah”
Zindagi mili hai kabhi
Kisi ghat par
To kisi kinare
Kabhi ruka hoon pal-do-pal”
(from ‘Kisi Nadi ki Tarah’)

“For centuries
I’ve been flowing like a river
Life met me sometimes
In shallow waters
Or on the banks
Have I paused for a while.”
The themes of his poetry consist of varied shades that we experience from birth till death. An aura that pervades a majority of his poems is that of nostalgia longing. Very beautifully the poet tries to contain in his words the bubbling childhood in his poem ‘Ek Yaad’. When he talks of the journey of child going to his village school and coming back home.
“Un kadmon ke nishaan
Abhi mite nahin hain.”
(from ‘Ek Yaad’)
(“Those footprints
Not wiped out yet.”)
A noticeable feature of his poetry is the use of the technique of alliteration. Quite a few poems in his anthology exhibit the trait of having a number of lines beginning with the same word.

“Aisa sparsh dedo mujhko
Jis mein surya si ushma ho
Jis mein chaand si sheetalta
Jis mein dhayan si abha ho”
(‘Sparsh’)
“Give me such a touch
That has the light of Sun
That has the soothness of moon
That has an aura of meditation.”

In all this collection of poems and ghazals is unique in the fact that a Keralite has woven a poetic yarn so beautifully in Hindi. Going through the poems one can feel the emotions and feelings of the poet looking at you from behind a line or glancing at you through a word.


AMRITBIR KAUR
Poet

एक पल की उम्र लेकर - पाठकों के विचार/समीक्षा - राजीव रंजन प्रसाद


“उस “सारथी” के नाम जो इस सजीव शरीर में बसता है।" ‘सजीव सारथी’ नें समर्पण के इसी वाक्यांश में अपने पहले काव्य संग्रह “एक पल की उम्र ले कर” के मर्म को प्रस्तुत किया है। कवितायें पढते हुए बगीचे में खिले नये पुष्प की खुशबू सी आती है, तो बरसाती नदी के प्रवाह से निकलता कल कल स्वर सा भी महसूस होता है। कोई बनावटीपन नहीं, कोई लच्छेदार भाषण-संभाषण नहीं, कहीं कोई ओज-आक्रोश नहीं, कोई धारा-विचारधारा के प्रलाप नहीं अपितु विशुद्ध कवितायें हैं इस संग्रह में। हेवेन्ली बेबी बुक्स, कोच्चि केरला से प्रकाशित संग्रह में प्रस्तुत रचनायें इतनी तराशी हुई हैं कि यकीन करना कठिन है यह किसी ‘अहिन्दी भाषी’ की कवितायें हैं। हर शब्द सटीक और भाव भरा जैसे यह सजीव की अपनी ही भाषा है, हिन्दी-अहिन्दी की दीवार के मायने क्या? अपनी भूमिका में शास्त्री जे सी फिलिप सजीव की कविताओं को सहज कवितायें पारिभाषित करते हैं। वे लिखते हैं कि “अधिकतर कवियों के साथ परेशानी यह है कि उनकी दस रचनायें पढ लीजिये तो उसके बाद की हर रचना पहले जैसी लगती है। लेकिन सजीव की हर रचना अपने आप में नयापन लिये रहती है.. “। वे आगे लिखते हैं - “प्रस्तुत पुस्तक की रचनाओं नें सिर्फ यादों और कुंठाओं को ही नहीं बल्कि मन की मधुर-से-मधुर अभिलाषाओं को एवं दिमाग की कठिन से कठिन (दार्शनिक) कसरतों को भी अपनी पंक्ति में बाँधा है“। उन्होंने पुन: लिखा है - “आज के पाठक को कविता ऎसी चाहिये जो उसे आकर्षित करे, पढते ही अर्थ समझ में आने लगे, और साथ-ही-साथ आँखों से हो कर गुजरते शब्द मन को स्पर्श भी करते जाये”।

सजीव की कविताओं पर इस उद्धरणों से बात आगे बढायी जा सकती है। मैं सजीव की कविताओं पर “नवोदित रचनाकार” की परची नहीं चिपका सकता। कथ्य, शिल्प और दार्शनिक चिंतन कवि को रचना-संसार में कई पायदानों उपर खडा करता है। कविता के शीर्षक छोटे हैं और प्राय: उनमें पूरी रचना का मर्म मिल जाता है। कविता में दार्शनिक तत्वों की अधिकता के कारण कई बार एक कविता पढते हुए अनेक कवितायें पढ जाने का भान होता है। कवितायें हर पठन पर नये स्वरूप और नये ही परिधान में झांकती मुस्कुराती हुई पाठक से स्वयं को एकाधिक बार बढे जाने का आग्रह करती हैं। संग्रह में प्राय: मुक्त कवितायें हैं लेकिन उनमें रसानुभूति है तथा अलंकारिकता है। मैं विषयों की विविधता पर भी अवश्य चर्चा करना चाहूंगा। सजीव नें अपने अंतस को भी विषय बनाया है, अपनी सोच को भी विषय बनाया है, अपने ‘ऑब्जरवेशन’ को भी विषय बनाया है, अपने सामाजिक सरोकारों को भी विषय बनाया है, प्रकृति को भी विषय बनाया है तो अपने सपनों को भी विषय बनाया है।

कवि की रचनाओं में “मैं” तत्व अनेक स्थलों पर प्रस्तुत हुआ है। यह इस लिये कि कवि अपने अनुभवों की व्याख्या अपने बिम्बों के माध्यम से स्वयं ही करना चाहता है। उसे वे प्रतीक सहज लगते हैं जिनमें वह खुद एक पात्र हो कर व्याख्यान दे सके -



चट्टान मेरी तरह खामोश है/ और मैं जड़, उसकी तरह
आज भी वो पेड मेरे सामने है/और मैं देखता हूँ
उसकी नंगी शाखों से परे/ चमकती हुई लाल गेंद
आसमान पर लटकी हुई/ मेरी पहुँच से मीलों दूर।
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सदियों से बह रहा हूँ/ किसी नदी की तरह
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कलम अपनी/ तुम्हारे गले से लग कर
रोना चाहता हूँ फिर मैं/ और देखना चाहता हूँ फिर
तुम्हें चहकता हुआ/ अपनी खुशियों में
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कल मैने दर-बदर देखा था उसके बच्चों को,
पी गयी क्या एक घर और ये शराब शायद।

सजीव सामाजिक सरोकारों से जुड कर लिखते हैं। उनकी कलम विद्रोही तो हर्गिज नहीं है लेकिन चुप रह कर बैठने वाली भी नहीं है। वे शब्द चित्र उपस्थित कर देते हैं जिन्हें पढते ही जैसे कोई पेंटिंग सी आँखों के आगे उपस्थित हो जाती है। एसा शब्द चित्र जो सोचने का धरातल देता है और पाठक पर ही फैसला छोड देता है कि यह आज का सच है और अब तुम जानों कि इसी के साथ जीना चाहते हो या प्रतिकार करना। कवि फैसले सुनाने में यकीन नहीं रखता इसी लिये शब्दचित्र परिणामों तक जा कर मुक्ताकाश हो जाते हैं...गहरी सोच में पाठक को छोड कर ये कवितायें चलती बनती हैं। सजीव नें व्यंग्य को नहीं आजमाया है यद्यपि कई बात कविताओं के अर्थों में यह छुपा-ढका सा मिलेगा। यदि आप तनिक भी संवेदनशील हैं तो मखमल से प्रतीत होने वाले सजीव के शब्द आपको चुभेंगे अवश्य -

एक नन्हीं सी चिंगारी/ कहीं राख में दबी थी
लपक कर उसने/ किरणों को छू लिया/ सूखे पत्तों को आग लगा दी
हवाओं में उडा दिया।
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कुछ धार्मिक हो जाते हैं/ रट लेते हैं वेद पुराण/ कंठस्थ कर लेते हैं
और बन जाते हैं तोते/करते रहते हैं वमन-
कुछ उधर लिये हुए शब्दों का उम्रभर/ और दूकान चलाते हैं
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तुम कौन हो सुनाने वाले/ तनिक उससे भी तो पूछो
कौन अपना है उसका
मेरा लहू गिरा है पसीना बन कर/ उसके दामन में
महक मेरी मिट्टी की/ बखूबी पहचानता है वो।
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धरती का दामन सुर्ख हुआ जाता है
फिर आदम नें खुल्द में/ किसी जुर्म को अंजाम दिया है
इस बार/ खून खुदा का बहा है शायद
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मैं एसी कोई कविता लिख पाता
कि पढने वाला/ पेट की भूख भूल जाता
और प्यासे मन की/ दाह को तृप्त कर पाता
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सभ्यता के विकास में अक्सर
विलुप्त हो जाती हैं/ हाशिये पर पडी प्रजातियाँ
विलुप्त हो रहे हैं हल जोतते/ जुम्मन और होरी आज
मेरे गाँव में/ विलुप्त हो रहा है – किसान।
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अपने अपने सपनों से जागते हैं
आदमी, चिडिया/ खरगोश, भेडिया
और, अपने पेट की अतडियों में/ बजते हुए नगाडे सुनते हैं
और फिर शुरु होती है/ अपनी अपनी भूख से लडते जीवों की/ दिनचर्या
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मुझको ही तो ढाल बना कर आखिर
तलवार चला रहे हो तुम
जन्मों से जी रहा हूँ इस संग्राम को मैं
लहू से अपने भडका रहा हूँ इस आग को मैं
थक चुका हूँ, चूक चुका हूँ/खुद को बहुत फूँक चुका हूँ
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शब्द कुछ/कल शाम निकले थे/बाजार में घूमने
रात शहर में हुए/बम धमाकों में मारे गये
दोस्ती/प्यार/विश्वास/इंसानियत
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खोखली है बुलंदियाँ/ दिखावे की सब रौनक है
ये वो इमारत है/ जिसकी नींव तले/ कई ख्वाब दफन हैं।


मैं इन उद्धरित पंक्तियों के माध्यम से यह वकालत करना चाहता हूँ कि समकालीनता की बहस में भी सजीव की ये कविताए अपना स्थान रखती हैं। आप इन्हें हल्के में नहीं ले सकते या खारिज नहीं कर सकते। सजीव का समाज विषयक अपना दृष्टिकोण है तथा वे बिना बहस में पडे “विचारधाराओं” को भी कटघरे में खडा

करते हैं –


चारो दिशायें मिल जायें तो भी/ दुनियाँ एक हो जाये तो भी
ताकत ही राज करेगा फिर भी
कमजोर दबाये जायेंगे यूँ ही/ शासन यही रहेगा फिर भी
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भूख पेट की सब को नोचती/जिस्म की तडप भी है एक सी
चाह भी वही, आह भी वही/मंजिलें वही, राह भी वही
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क्यों है आखिर/ अपनी ही सत्ता से कटा छटा
क्यों है यूँ/अपने ही वतन में अजनबी-/आम आदमी।
मैं कवि के स्त्रीविमर्श को भी आडंबरविहीन मानता हूँ। उद्धरित कविता असाधारण है जो माँ-बेटी की नोक झोंक पर ही केन्द्रित नहीं है अपितु वह माँ की प्रसव पीडा से ले कर एक बेटी के अपने साथ होने के कोमल असहास की बानगी भी है। हजारो अर्थ हैं इन पंक्तियों के और इस विषय पर हर बहस के केन्द्र में ये पंक्तियाँ स्वत: पायी जाती हैं -

थाली में रखे/ मटर के दाने/ बिखर गये
”हे मरी”/माँ नें एक/ मीठी सी गाली दी
अपनी किस्मत को कोसा/ फिर उठ कर/ बिखरे दाने बीनने लगी।
आज उस बच्ची का जन्मदिन है।
आज वह पूरे नौ साल की हो जायेगी
नौ साल, नौ महीने की।
इसी तरह अपने बेटे को स्कूल छोडने जाता और समझाता कोई मजदूर जब बडी बडी कोठियाँ देखता है तो उसके सपनों के स्वर उँचे हो जाते हैं। लेकिन इतना ही तो नहीं....कविता वर्ग संघर्ष की बात करते हुए बिना जिन्दाबाद और मुर्दाबाद के नारे लगाये धरती और आसमान के क्षितिज बन जाने का ही स्वप्न है -

यूँ भी उसका स्वर तेज है
मगर उसकी आवाज/ उस गली से गुजरते वक्त
और तेज हो जाती है/ जहाँ कोठियाँ हैं
बडे-बडे रईसों की।

कविता लिखी नहीं जाती यह अवतरित होती है। यह जितना सरोकारों को अभिव्यक्त करती है उतना ही आत्ममंथन भी। कविता आग या तपिश ही नहीं होती वह तो सुनहला मोरपंख भी होती है और सुबह की पहली धूप भी होती है। कविता बाँसुरी की धुन भी है और बारिश की रिमझिम भी। यह तो कवि है जब बारिश में जंगल को देखता है तो उसे नाचता मोर दिखता है लेकिन शहर भी तो खूबसूरत है? बारिश उसे भी तो नहला कर तरोताजा कर जाती है? मिट्टी का सोंधापन उसे भी तो महमाता है और कवि कैसे चूक सकता हैं? उसकी कलम सजीव हो उठती है -


सुरमई आकाश बरसता है/ आशीर्वाद की तरह
बूंदों की टप टप स्वरलहरियों से/ एक भीनी भीनी, सौंधी सौंधी
ठंडक सी उतरती है/ बारिश में भीगता है जब ये शहर।

किंतु एसा भी नहीं कि गाँव सजीव को नहीं खींचता या कि बीता हुआ समय उसे शब्दों की चित्रकारी करने को बाध्य नहीं करता। वे बखूबी से लिखते हैं –


कीचड से सने पाँव ले कर
कच्ची पगडंडियों से गुजरते थे
उन कदमों के निशां/ अभी मिटे नहीं हैं

कविता में बिम्ब नये हैं और जीवंत हैं। जैसे चित्रकार नें सही गढा है और सच्चे रंग भरे हैं। बिम्ब अनूठे भी हैं और कई बात चमत्कृत भी कर देते हैं। बिम्ब किसी दूसरी दुनिया से उठा कर नहीं लाये गये हैं वे आस-पास से ही बीने बटोरे गये हैं। कभी बोतल बिम्ब है तो कभी शतरंज तो कभी पीपल तो कभी दर्पण -

मैं देखता हूँ अक्सर/एक छोटी सी बोतल
जिसमें कैद है/ एक देवता और एक शैतान
जो बिना एक हुए/ आ नहीं सकते बोतल के बाहर
एक हो कर दोनों/ कैद से तो छूटते हैं
पर लडकर फिर अलग हो जाते हैं।
----------
मन की शतरंज/ चौंसठ दोरंगी खानों की बिसात
उसपार सोलहों मोहरे तुम्हारे/ इसपार सोलहों मेरे
तुम आशा के अनुरूप/ अडिग, आश्वस्त और निश्चिंत
मैं बीते अनुभवों से कुछ/ सहमा, डरा, और अव्यवस्थित
----------
ज़िन्दगी तो थी वहीं/ जिसके सायों को हमनें
डूबते सूरज की आँखों में देखा था
उस बूढे पीपल की/ छाँव में ही सुकून था कहीं
----------
नींद के टूटे दर्पण से/ कुछ ख्वाब चटख कर
बिखर गये थे कभी/ चुभते हैं अब भी आँखों में
वो काँच के दाने।

सजीव की आत्मचिंतन और आत्ममंथन करती हुई कवितायें कहीं भी कुंठित नहीं है। वह पाठक को घुटाती नहीं है। ये कवितायें आशावादी हैं, उम्मीद से भरी हुई हैं। ये कवितायें आध्यात्म भी हैं और श्रंगार भी। कवितायें हार को अस्वीकार भी हैं तो उम्मीद का अम्बार भी। ये कभी स्वयं प्यास हैं तो कभी प्रश्न। कवितायें कभी सुझाव हैं तो कभी उत्तर भी हैं -

कितने किनारे/ पानी में समा गये
फिर भी प्यासे रहे
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जैसे कुछ अनसुलझी गुत्थियाँ/ कुछ अनुत्तरित सवालों का
समूहगान जैसे/ कैसी विडम्बना है ये
आखिर हम मुक्त क्यों नहीं हो पाते?
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खोल दो इन दरीचों को/ ताकि एक बार फिर
गुलाबी धूप/छू सके मुझे आ कर
इन सब्ज झरोखों से।
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मगर कुछ बदनसीब/ एसे भी रह जाते हैं
जिनपर कोई रंग नहीं चढ पाता पर भी
-----------
हम अपने बचपन की केंचुली को
धीरे धीरे उतारते हैं।
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एसा स्पर्श दे दो मुझे
जिसकी अनुभूति के लिये/ उम्र भी एक महज हो
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मेरे तलवों तले से निकलता
ये साया/ मेरा है भी या नहीं
या फिर मेरे जैसा कोई और है
जिसने मेरे पैरों में/ सफर बाँध रखा है।
----------
फिर क्यों, नाखुदा को खुदा कहें
क्यों सहारों को ढूंढते रहें
आओ वक्त के पंखों को परवाज दें
एक नयी उदान दें/ अनजान दिशाओं की ओर।
----------
तभी कहीं दूर से, एक किरण आई
पलकों पर बिखर गयी/ लगा किसी नें कहा हो-
उजाला हो गया/ अब तो सच को पहचानो।
----------
एक नासमझ इतरा रहा था
एक पल की उम्र ले कर।
----------
वो समेट लेता है मेरे सारे आँसू/ अपने दामन में
फिर प्यार से काँधे पर रख कर हाँथ
कहता है – अभी हारना नहीं/अभी हारना नहीं

काव्य संग्रह के अंतिम पृष्ठ पर प्रकाशित परिचय कहता है कि सजीव मूलत: एक गीतकार हैं जो कविताओं में अपने आप को तलाश करते रहते हैं। काव्य संग्रह “एक पल की उम्र ले कर” में सजीव का सिर्फ एक गीत और कुछ गज़लें ही उपलब्ध हैं। कुछ उदाहरण इस विधा में उनकी दक्षता की ओर इशारा करते हैं -
देखता है क्यों हैरान हो कर, आईना मुझे रोज,
ढूंढता है, मुखौटों के शहर में एक चेहरा – मुखौटा।
----------
ख्वाब बोये जो हमने, क्या बुरा किया।
चंद मुरझा गए तो क्या, खिले हैं कुछ।
-----------
पीकर के जहर भी, सूली पर मर कर भी,
जिन्दा है सच यानी, झूठ के भाले कुंद हैं।

सजीव सारथी नें अपने काव्य संग्रह के साथ ही अंतर्जाल की दुनिया के बाहर स्वयं को विस्तारित किया है। उनके आगामी काव्यसंग्रहों की प्रतीक्षा है तथा उन्हें निरंतर सृजन के लिये हार्दिक शुभकामनायें।



Rajeev Ranjan Prasad.
Poet and Writer
Editor - Sahitya Shilpi

एक पल की उम्र लेकर - पाठकों के विचार/समीक्षा - रवि मिश्रा

आपकी 'एक पल की उम्र लेकर' पढ़ी और आपसे ईर्ष्या हो रही है. यक़ीन जानिए इस जलन में भी तारीफ़ है, मुहब्बत है. एक अहिन्दी प्रदेश का वासी न सिर्फ हिंदी जानता है, बल्कि हिंदी जीता है. ये मामला हिंदी प्रदेश के वासियों के लिए भूखमरी सरीखा है. जहाँ हिंदी सरकारी गोदामों में अनाज की तरह भरी पड़ी है, लेकिन फिर भी भूखमरी है.

खैर.....आपकी हर रचना अपने आप में बिलकुल ताज़ी है. मैं काफ़िये का हिमायती हूँ. मुझे लगता है की काफ़िये के दायरे में रहकर कोई बड़ी बात कहना बड़ी बात है. लेकिन मुझे ये भी पता है की काफ़िये के परे भी कवितायेँ हैं, शायरी है. बल्कि ये बेहद वृहद् और जटिल भी है. काफ़िया मिलाने में कम से कम इस बात की गुंजाईश तो रहती है कि सामईन 'अच्छी कोशिश कहकर आपको मुआफ़ कर दें. लेकिन बगैर काफ़िये में इस बात का डर हमेशा बना रहता है कि 'ये क्या है' के पत्थर बरस सकते हैं. लेकिन आपकी कलम कमाल है. बागी काफ़िये के भी तरन्नुम कि लज़्ज़त है. विषय बेहद जाने - पहचाने...फिर भी अजनबी से.

अच्छा लगा. पुराने ज़ख्म खुल गए.

आपकी कवितायों से साफ़ हो जाता है कि आप केरल के हैं. हर दूसरे - तीसरे पृष्ठ पर उसकी हरियाली दिखती है. एक बुरी आदत है आपकी कवितायों में. गाहे - बगाहे माज़ी में ले जाते हैं. टीस सी उठती है. आह सी निकलती है. कहीं कुछ फिर से बिखर जाता है. वक़्त महबूबा सी जो होती है. एकबार रूठकर चली जाये तो लौटकर नहीं आती. बस उसकी याद आती है. आपकी कवितायेँ उसी सफ़र पर ले जाती हैं.

मुझे आप शायर कम फोटोग्राफर ज्यादा लगे, जो लफ़्ज़ों से फोटोग्राफी करता है. आपका हर फोटो अपने आप में तारीख़ है. मुझे यक़ीन है कि आज से दसेक साल बाद जब नयी पीढ़ी पुराने समाज कि तलाश करेगी, तो आपकी कवितायेँ इसे मरे, भूले - बिसराए समाज का पता बतायेंगी. जहाँ हाथ में छड़ी थामे मास्टरजी होंगे. मस्ती में झूमते बच्चे होंगे. उनके बसते होने और उनमे भी तमाम दुनिया होगी. लेकिन उतनी भरी नहीं, जितनी कि तब होगी. हम जैसों को भी अपने माज़ी में लौटने का शार्टकट मिलता रहेगा.

शुक्रिया हमारे दिल की बात कहने के लिए.


इति

रवि
फिल्मकार और कवि

एक पल की उम्र लेकर दिल्ली पोयट्री में

२४ जून की शाम मुझे दिल्ली के अमेरिकन सेंटर, में दिल्ली पोयट्री के कार्यक्रम में बतौर फीचर्ड कवि आमंत्रित किया गया. दिल्ली पोयट्री, दिल्ली के सम्मानित कविता समूह में से एक है, जो दिल्ली के सभी स्थानों पर माह में ३० दिन कविता की महफ़िल रोशन करने का एक बड़ा सपना लेकर पिछले ४ सालों से काम कर रही है. इसके संचालक हैं अमिता दहिया "बादशाह" जो खुद भी एक जाने माने कवि हैं.


कार्यक्रम में हिंदी और अंग्रेजी के कई युवा और वरिष्ठ कवियों ने कविता पाठ किया. मेरी कवितायें "दीवारें", "ऐसी कोई कविता", और "विलुप्त होते किसान" बेहद पसंद किये गए. कार्यक्रम का कुशल संचालन खुद अमित जी ने अपने चिर परिचित अंदाज़ में किया. दिल्ली पोयट्री ने मेरी पुस्तक "एक पल की उम्र लेकर" को बिक्री के लिए भी अपने काउंटर पर जगह दी.

मेरे लिए ये अवसर इसलिए भी खास था क्योंकि मैंने अपना पहला मंचीय कविता पाठ दिल्ली पोयट्री के ही एक कार्यक्रम में किया था करीब चार साल पहले. और आज यहाँ अपनी पुस्तक के साथ उपस्तिथ होना मेरे लिए एक वृत्त का घूमकर वापस अपनी जगह पर आने जैसा है. दिल्ली पोयट्री के चुने हुए १०० कवियों में से भी एक होने का सौभाग्य मुझे मिला था. मैं उम्मीद करूँगा कि दिल्ली पोयट्री अपने शुभ उद्देश्यों में और कामियाब हो.

एक पल की उम्र लेकर - पाठकों के विचार/समीक्षा - विश्व दीपक तन्हा

मैं आज तक फिल्मी गीतों की समीक्षा करता आया हूँ, लेकिन पहली मर्तबा किसी कविता-संग्रह की समीक्षा करने का मौका हासिल हुआ है। यह मौका दो कारणों से मेरे दिल के करीब है.. एक तो इसलिए कि ये सारी कविताएँ नए दौर की कविताएं है, जो आज के हालात का बखूबी चित्रण करती है और दूजा ये कि इन कविताओं के रचयिता मेरे बड़े हीं प्यारे कवि-मित्र हैं। सजीव सारथी जी का नाम अंतर्जाल पर हिन्दी भाषा के प्रेमियों के लिए नया नहीं है.. बस इस बार नया यह हुआ है कि सजीव जी अंतर्जाल से उतरकर पन्नों पर आ गए हैं। "एक पल की उम्र लेकर" इनका पहला कविता-संग्रह है। मैं इनके कविता-संग्रह की समीक्षा करूँ, इससे पहले पाठकों को यह यकीन दिलाना चाहता हूँ कि मेरी समीक्षा पर इनकी मित्रता का कॊई कुप्रभाव न होगा :) .. मेरी समीक्षा तटस्थ हीं रहेगी..


सजीव जी की कविताओं की सबसे बड़ी खासियत ये है कि इनकी लिखी हर एक बात अपनी बात-सी लगती है,

हर खुशी अपनी हीं किसी खुशी की याद दिलाती है, हर ग़म अपने हीं बीते हुए किसी ग़म का बोध कराता है। ये हर एक अनुभव को अपने अनुभव से पकड़ते हैं। ये जिस आसानी से हँसी लुटाते हैं, उतनी हीं आसानी से आँसुओं की भी बौछार कर डालते हैं। ११० पन्नों के इस कविता-संग्रह में हर तरह के भाव हैं। इनके यहाँ कथ्य का दुहराव नहीं है। ये उन कवियों की तरह नहीं हैं, जिन्हें अगर एक बार ज़िंदगी में बुरे लम्हे नसीब हुए तो उनका लेखन हीं निराशावाद की तरह मुड़ जाता है.. फिर हर एक पंक्ति में उसी दु:ख के दर्शन होते हैं। सजीव जी दु:ख और सुख को तराजू के दोनों पलड़ों पर बराबर का स्थान देते हैं, इसलिए इनकी कविताओं को पढते वक़्त पाठक कोई एक मनोभाव बरकरार नहीं रख सकता। एक पाठक को महज कुछ हीं कविताओं में जीवन के सारे उतार-चढाव दिख जाएँगे।

"साहिल की रेत" कविता में जब कवि अपने पुराने सुनहरे दिनों को याद करता है तो अनायास हीं उसे इस बात का बोध हो जाता है कि जो भी लम्हे हमने गंवा दिए वही काफी थे, जीने के लिए। उन्हें ठुकराकर भी प्यास मिटी तो नहीं।

उन नन्हीं
पगडंडियों से चलकर हम
चौड़ी सड़कों पर आ गए
हवाओं से भी तेज़
हवाओं से भी परे
भागते हीं रहे
फिर भी
प्यासे हीं रहे...

किसी पुराने प्यार, किसी पुरानी पहचान को भुलाना आसान नहीं होता। वह इंसान भले हीं हमारी ज़िंदगी से चला जाए, लेकिन उसकी यादें परछाई बनकर हमारे आस-पास मौजूद रहती है। कुछ ऐसे हीं ख़्यालात "बहुत देर तक" कविता में उभरकर सामने आए हैं:

बहुत देर तक
उसके जाने के बाद भी
ओढे रहा मैं उसकी परछाई को..
बड़े शहरों में छोटे शहरों या गाँवों से मजूदरों का पलायन कोई नई बात नहीं है। यह बात भी किसी से छुपी नहीं कि इन लोगों के साथ कैसा सलूक किया जाता है। ये भले हीं उनके समाज में घुल जाना चाहें, लेकिन बड़े लोगों का समाज इन्हें गैर या प्रवासी हीं बने रहने देना चाहता है। ऐसे प्रवासियों का दर्द और खुद पर गुमान सजीव जी की इस एक पंक्ति से हीं स्पष्ट हो जाता है। कविता है "किसका शहर":


उन सर्द रातों में
जब सो रहे थे तुम
मैं जाग कर बिछा रहा था सड़क..
गाँवों से मजदूरों और किसानों का पलायन केवल केरल तक सीमित नहीं है। यह अलग बात है कि सजीव जी ने केरल के गाँवों की स्थिति अपनी आँखों से देखी है। इसलिए इन्होंने "विलुप्त होते किसान" में हाशिये पर पड़ी इन प्रजातियों पर गहरी टिप्पणी कर डाली है:

सभ्यता के विकास में अक्सर
विलुप्त हो जाती हैं
हाशिये पर पड़ी प्रजातियाँ..

ज़िंदगी से छोटे-छोटे लम्हे बटोर लाना सजीव जी की आदत-सी है शायद। तभी तो इन्होंने किसी की उम्र में "नौ महीने" जोड़ दिए तब हमें मालूम हुआ कि उम्र कहीं छोटी पड़ रही थी। ये नौ महीने जितना एक लडके के लिए मायन रखते हैं, उतना हीं एक लड़की के लिए.. या फिर कहिए कि लड़की के लिए ज्यादा... क्योंकि लड़कियों के लिए वे नौ महीने गुजारने ज्यादा मुश्किल होते हैं... मौत कब गले पड़ जाए कोई नहीं जानता... इस कविता के लिए मैं सजीव जी को विशेष दाद दूँगा।

शिनाख्त उनकी होती है, जिन्हे जीने का हक़ होता है और जो ज़िंदगी को अपने बूते पर जीता है। वह तो बे-शिनाख्त हीं मारा जाएगा, जो रोड़े की तरह पाँव के ठोकर खाता हुआ इधर-उधर फेंका जा रहा हो। दिल्ली-मुम्बई जैसे शहरों में बिहार के पिछड़े गाँव से आने वाले किसी मजदूर (हाँ, वही पलायन की दु:ख भरी दास्तां) की किसने जेब मारी, किसने किडनी और किसने ज़िंदगी.. इसकी कौन खबर लेता है। ये मजदूर और इनके परिवार वाले तो यही मानते हैं कि स्वर्ग के दर्शन हो रहे हैं, लेकिन जो होता है उसका जीता-जागता ब्योरा सजीव जी की "बे-शिनाख्त" कविता में है। सच हीं लिखा है आपने:

और किसी को कानों-कान
खबर भी नहीं लगती..

प्यार... बड़ा हीं प्यारा अनुभव है। इसमें जीत क्या और हार क्या... प्यार को अगर शतरंज की बाजी की तरह समझा जाए तो सजीव जी की "शह और मात" कविता हर चाल के साथ फिट बैठती है और फिर... इन पंक्तियों के क्या कहने:

मैंने खुद को विजेता-सा पाया
जब तुमने मुस्कुराते होठों से कहा -
यह शह है और ये मात।

दंगों में बस इंसान हीं ज़ाया नहीं होते.. इंसान के द्वारा गढे गए शब्द भी अपना अर्थ खो देते हैं। दोस्ती, प्यार, विश्वास, इंसानियत.. ऐसे न जाने कितने शब्दों की मौत हो आती है। "शब्द" कविता में कवि इन्हीं आवारा शब्दों की शिकायत करते हुए कहता है कि:

शब्द
जो एक अमर कविता बन जाना चाहते थे
कुछ दिन और ज़िंदा रह जाते-
अगर जो खूँटों से बँधे रहते।

कश्मीर.. यह क्या था, इसे क्या होना था.. लेकिन यह क्या होकर रह गया है.. इस सुलगते शहर में अब दर्द भी सुलगते हैं। आँखों में रोशनी की जगह गोलियों के सुराख ... आह! इस दर्द को महसुस करना हो तो "सुलगता दर्द-कश्मीर" एक बार ज़रूर पढ लें।

कहा था ना कि दर्द और प्यार.. खुशी और ग़म.. हर तरह के अनुभव सजीव जी के इस संग्रह में मौजूद है। तो लीजिए.. अगली हीं कविता में "हृदय" की कोमलता से रूबरू हो आईये। क्या खूब कहा है कवि ने:

क्या करूँ, मुश्किल है लेकिन
खुद से हीं बचकर गुजरना।

"एक पल की उम्र लेकर" कविता-संग्रह में न सिर्फ़ उन्मुक्त छंद हैं, बल्कि कई सारी ग़ज़लें भी हैं। उन्हीं में से एक है "रूठे-रूठे से हबीब"। इस ग़ज़ल के एक शेर में कवि इस बात का खुलासा कर रहा है कि आजकल प्रेम परवान क्यों नहीं चढता?

कहाँ रहा अब ये प्रेम का ताजमहल,
ईंट-ईंट में अहम के किले हैं कुछ..
दूसरी ग़ज़ल है "भूल-चूक"। दंगे-फ़सादों में जब भी किसी इंसान की जान ली जाती है तो उस समय एक इंसान नहीं एक धर्म निशाने पर होता है और निशाना भी एक धर्म की ओर से हीं लगाया जाता है। उस वक़्त कोई गीता की शपथ लेता है तो कोई क़ुरआन के कलमें पढता है। इसी लिए कवि ने कहा है कि:

कोई अल्लाह तो कोई राम रट कर कटा है,
चौक पर रूसवा हुई है फिर कोई किताब शायद..

मंज़िल उन्हीं को हासिल हुई है, जिन्होंने रास्तों की खोज़ की है। कुएँ के मेढक की तरह सिमटकर बैठे रहने से कुछ भी हासिल नहीं होता। कभी न कभी अनजान दिशाओं की ओर बढना हीं होता है। कभी न कभी नाखुदा से ज्यादा खुद पर भरोसा करना होता है। सजीव जी अपनी इन बातों को रखने में पूरी तरह से सफल हुए हैं:

आओ वक़्त के पंखों को परवाज़ दें,
एक नयी उड़ान दें
अनजान दिशाओं की ओर।

सदियों से इंसान के सामने सबसे बड़ा यक्ष-प्रश्न यही रहा है कि वह आया कहाँ से है। आज तक इसका उत्तर कोई जान नहीं पाया है। फिर भी वक़्त-बेवक़्त हर कहीं यह प्रश्न किसी न किसी रूप में सामने आता हीं रहता है। "कफ़स" कविता में यह प्रश्न कुछ इस तरह उभर कर आया है:

आसमान पे उड़ने वाले परिंदे की
परवाज़ जो देखी तो सोचा कि-
मेरी रूह पर
ये जिस्म का कफ़स क्यों है?

एक कवि किस हद तक सोच सकता है यह जानना हो तो सजीव जी की "सूखा" कविता पढें जहाँ ये कहते हैं कि:

मेरे भीतर-
एक सूखा आकाश है।
"सिगरेट" न सिर्फ़ जिगर को खोखला करता है, बल्कि ज़िंदगी जीने के जज्बे को भी मार डालता है। इंसान अपने ग़म मिटाने के लिए सिगरेट की शरण ले तो लेता है, लेकिन जब उसे अपने अंतिम दिन सामने नज़र आते हैं तब जाकर शायद उसे इस बात का पता चलता है कि:

मगर जब देखता हूँ अगले हीं पल
ऐश-ट्रे से उठते धुवें को
तो सोचता हूँ,
ज़िंदगी -
इतनी बुरी भी नहीं है शायद।

इस संग्रह में और भी कई सारी अच्छी कविताएँ, ग़ज़लें एवं क्षणिकाएँ हैं, लेकिन सब का ज़िक्र यहाँ मुमकिन नहीं है। इसलिए मैंने उनमें से अपनी पसंद की पंक्तियाँ चुनकर उनकी समीक्षा की है। हो सकता है कि पाठक को या फिर दूसरे किसी समीक्षक को कोई और पंक्तियाँ ज्यादा पसंद हों। अपनी-अपनी राय है.. अपना-अपना मंतव्य है। अगर पूरे संग्रह की एक बार बात की जाए तो हर कविता का अंत बेहतरीन है। इस मामले में मैं सजीव जी का बहुत बड़ा प्रशंसक हूँ कि वे जानते हैं कि कौन-से शब्द और कौन-से वाक्य कहाँ रखे जाने हैं।

चूँकि शुरूआत में मैंने कहा था कि मेरी समीक्षा तटस्थ होगी, तो मैंने संग्रह में दो-चार ऐसी भी पंक्तियाँ ढूँढ निकाली हैं, जहाँ या तो मैं थोड़ा दिग्भ्रमित हुआ या फिर मुझे लगा कि शिल्प थोड़ा ठीक किया जा सकता था।

उदाहरण के लिए "पराजित हूँ मैं" कविता की इन्हीं पंक्तियों को लें:

मेरा रथ हीं तो दलदल में
फँसाया था तुमने
मेरा वध हीं तो छल से
कराया था तुमने।

मेरे हिसाब से अगर "हीं" को "रथ" और "वध" के पहले रखते तो अर्थ ज्यादा साफ़ होता। तब यह अर्थ निकलता कि "मेरा" हीं रथ ना कि "किसी" और का। "हीं" को बाद में रखने से वाक्य का जोर "रथ" और "वध" पर चला गया है, जो कि "मेरा’ पर होना चाहिए था।

अगली कविता है "संवेदनाओं का बाँध"। इस कविता के अंतिम छंद को मैं सही से समझ नहीं पा रहा हूँ।

मन की हर अभिव्यक्ति को
शब्दों में ढल जाने दो
कोरे हैं ये रूप इन्हें
कोरे हीं रह जाने दो।

यहाँ शुरू की दो पंक्तियों में कवि यह कहना चाहता है कि मेरी हर अभिव्यक्ति को आवाज़ मिले, शब्द मिले। लेकिन अंतिम दो पंक्तियों में "कोरे" को "कोरे" रह जाने दो.. कहकर "अभिव्यक्ति" को "अभिव्यक्ति" हीं रहने देने की बात हो रही है या फिर कुछ और? मैं चाहूँगा कि सजीव जी मेरी इस शंका का समाधान करें।

"आलोचना" वाली श्रंखला की अंतिम कविता है "आज़ादी"। इस कविता की एक पंक्ति में कवि ने "कारी" शब्द का इस्तेमाल किया है। मेरे हिसाब से कारी "काली" का हीं देशज रूप है। यह मानें तो पंक्ति कुछ यूँ बनती है:

उफ़्फ़ ये अँधेरा कितना काली है..

अब यहाँ "लिंग-दोष" आ गया है, क्योंकि अंधेरा पुल्लिंग है। अँधेरा की जगह अगर तीरगी को रखें तो यह दोष जाता रहेगा..

बड़ी हीं मेहनत-मशक्कत के बाद मैं इस कविता-संग्रह में बस ये तीन कमियाँ (शायद) निकाल पाया हूँ। बाकी तो आपने ऊपर पढ हीं लिया है।

मैं अपनी इस समीक्षा को विराम दूँ, उससे पहले सजीव सारथी जी को इस कविता-संग्रह के लिए बहुत-बहुत बधाईयाँ देना चाहूँगा और दुआ करूँगा कि उनके ऐसे और भी कई सारे संग्रह निकलें।

एक बात और... इस पुस्तक का जब भी दूसरा संस्करण निकले या फिर आपका कोई नया पुस्तक आए, तो इस बात का ज़रूर ध्यान रखें कि उर्दू के शब्द उर्दू जैसे हीं दिखें यानि कि नुख़्ते को नज़र-अंदाज़ न किया जाए।


विश्व दीपक
कवि, गीतकार और सोफ्टवेयर इंजीनियर

एक पल की उम्र लेकर - पाठकों के विचार/समीक्षा - सुनीता शानू

सजीव सारथी का काव्य-संग्रह “एक पल की उम्र लेकर” के बारे में कुछ कहने से पहले मै कवि के बारे में ही कुछ कहना चाहूँगी। सजीव को जब से जाना है, मैने यही महसूस किया है कि वे एक संवेदनशील, उर्जावान, नेक व्यक्तित्व के इंसान हैं। मैने हमेशा उनकी आँखों को कुछ खोजता हुआ ही पाया है। मै समझ नही पाती थी कि वे खुद को हम सबके बीच कैसा महसूस करते थे। किन्तु महसूस करती थी, उनके मन में जो दूसरों के प्रति सम्मान था, जो कभी किसी भी बात पर कम नही होता था। किसी भी गलत बात पर मैने उन्हे असहज होते फ़िर कुछ पल में संयत होते हुए भी देखा है।

अब बात आती है उनकी पुस्तक “एक पल की उम्र लेकर” तो मुझे लगता है, वर्तमान परिवेश की पीड़ा, तड़प, व्याकुलता, अकुलाहट, आक्रोश को उन्होने अपनी कविताओं में बखूबी निभाया है। कितनी पीड़ा, कितना आक्रोश है उनकी इन पंक्तियों में कि... कैसे यकीं दिलाओगे उसे कि/ महफूज है वो/ खबरों की काली सुर्खियाँ/ रोज पढ़ती है वो।

यह कहना कतई गलत नही होगा कि सजीव ने ज़िंदगी की वास्तविकताओं से अपने साक्षात्कार को पूर्ण दायित्व-बोध के साथ उकेरते हुए ईमानदारी के साथ अपनी रचनाधर्मिता का निर्वाह किया है। उनकी यह कविता सचमुच बार-बार पढ़ने का दिल करता है... काश/ मै ऎसी कोई कविता लिख पाता/ कि पढ़ने वाला/ देख पाता अपना अक्स उसमे/ और टूटे ख्वाबों की किरचों को/ फ़िर से जोड़ पाता।

निम्न पंक्तियाँ बताती है कि हर छोटी से छोटी बात को भी कवि ने अपनी कविताओं में जीवन्तता प्रदान की है...कवि अपनी एक कविता में कहता है...
वापसी में हम खेत से होकर जाते थे/ जहाँ पानी भरा रहता था/ कीचड़ से सने पाँव लेकर/ कच्ची पगडंडियों से गुजरते थे/ उन कदमों के निशाँ/ अभी तक मिटे नही हैं।

कवि की संघर्ष करने की शक्ति उसमें जीजिविषा और जीवट उत्पन्न करती है। ढुलमुल ज़िंदगी और मानवीय व्यक्तित्व को खंडित करने वाली शक्तियों से कवि आहत अवश्य होता है, किंतु निराश नही है। मन की आँखों में सपने संजोये, अपने अस्तित्व के प्रति सजग कवि कहता है कि...
डूबना तो एक दिन किनारों को भी है/ फ़िर क्यों, ना खुदा को खुदा कहें/ क्यों सहारों को ढूँढते रहें/ आओ वक्त के पंखों को परवाज दें/ एक नयी उड़ान दें/ अनजान दिशाओं की ओर।


आप कहेंगे कि आज के युग में सहज, सरल, कौन है? परन्तु सब कुछ कर जाने का जज्बा दिल में होते हुए भी कवि स्वभाव से सरल है, और कितनी सहजता से कवि कहता है...
मुझको था भरम /कि है मुझी से सब रोशनाँ/ मै अगर जो बुझ गया तो/ फ़िर कहाँ ये बिजलियाँ/... एक नासमझ इतरा रहा था/ एक पल की उम्र लेकर...।

मुझे नही लगता कि हर कविता को समझाना अनिवार्य है, क्योंकि यदि सम्पूर्ण काव्य-संग्रह की एक-एक कविता ध्यान से पढी जाये तो पाठक स्वय को उन कविताओं का लेखक समझ बैठेगा। मुझे भी एक पल को लगा कि जैसे ये कवितायें तो मै जी चुकी हूँ, बस पृष्ठों पर आज उभर आई है। मेरी शुभकामनाएं है सजीव तुम्हारी कलम हमेशा ऎसे ही चलती रहे.... और गीत,गज़ल,कविताओं के पुष्प वाटिका में सदैव खिलते रहें.।

एक पल की जिंदगी से ही... सूरज के रथ पर बैठकर/ जारी रखना मगर/ तुम अपना सफ़र।



सुनीता शानू
कवियित्री एवं रेडियो उद्घोषिका

एक पल की उम्र लेकर - पाठकों के विचार/समीक्षा - प्रेमचंद सहजवाला

(एक पल की उम्र लेकर – कवि सजीव सारथी. पृष्ठ संख्या : 110. Rs. 100, $ 2,
प्रकाशक : हेवेनली बेबी बुक्स, कोची केरल).
खरीदने के लिए जाएँ http://www.flipkart.com/author/sajeev-sarathie


प्रायः कविता संग्रहों को ले कर इस प्रकार की टिप्पिणियाँ सुनने को सहज ही मिल जाती हैं कि कविता अब एक इंडस्ट्री सी हो गई है, देश की हर गली नुक्कड़ पर कोई न कोई कवि ज़रूर मिल जाता है. शायद यह स्थिति कई वर्षों से है. पर इस के साथ ही यह भी एक कटु सत्य है कि कई कविता संग्रह पढ़ने पर उनके फीकेपन या निकृष्टता पर खीज सी भी होती है. इन पंक्तियों के लेखक भी पिछले कुछ महीनों से मुफ्त में मिले कुछ प्रभावहीन कविता संग्रह पढ़ने का अप्रिय अनुभव बटोरते रहे पर हेवेनली बेबी बुक्स, (कोची, केरल) से प्रकाशित सजीव सारथी का प्रथम संग्रह ‘एक पल की उम्र ले कर’ पढ़ने के बाद इस बात का सुखद अहसास अवश्य होता है कि इन तमाम कूड़ानुमा संग्रहों (जिनके कवि अधिकांशतः अपना ही पैसा फूंक कर संग्रह छपवाते हैं व घर में ही पुस्तकों का गोदाम बना लेते हैं) के बीच कोई कोई सार्थक प्रयास करता कवि भी मिल जाता है और काव्य-प्रेमी हृदय को एक सुखद सी अनुभूति भी होती है. सजीव सारथी के इस संग्रह के सरोकार सामाजिक भी हैं तो राष्ट्रीय भी, और वैश्विक भी तो कहीं कहीं वैयक्तिकता का पुट भी मिलता है. कवि स्वयं अभी एक उभरते हुए कवि है फिर भी बतौर एक बानगी के मैं इस संग्रह की सर्वश्रेष्ठ कविता ‘एक और अंत’ (1) की कुछ काव्य पंक्तियाँ उद्धृत कर रहा हूँ. इस कविता में पूरब और पश्चिम की अपनी अपनी त्रासदियों बल्कि उनकी घातकताओं का बहुत प्रभावशाली कंट्रास्ट प्रस्तुत कर के कवि ने अपने भीतर एक प्रखर विचारक विश्लेषक होने का सबूत प्रस्तुत किया है:
पूरब अपनी ही वर्जनाओं में जकड़ गया/ अपने ही संस्कारों से ऊब गया/ उसने आत्मा से मुंह मोड़ लिया/ वह जीवन के सत्यों को भूल गया/... पश्चिम अपनी संभावनाओं पर अकड़ गया/ अपनी कामयाबी पर फूल गया/ उसने मौत को चुनौती दे डाली/ वह वासनाओं में उलझ गया/ वह मुगालते में था कि दुनिया जीत ली पर खुद को जीतना भूल गया/... पूरब ने भ्रमित हो कर अपने ज्ञान को फूंक दिया/ और उसकी राख सूरज के मुंह पर मल दी/ आधा संसार धुंधला हो गया/ पश्चिम यह देख कर ठा-ठा कर हंसा/ अपने गुरूर में चूर हो कर उसने/ अपने विज्ञान का परमाणु/ सूरज के सर पर फोड़ दिया/... और अगले ही पल सारा संसार अंधा हो गया...
(pp 44-46).


कवि मन से उभरती विषयों की विविधता या एक आल-राऊंडर होने की ललक तभी अच्छी लगती है जब उसकी कलम से अनुभव व सोच के विस्तार के स्पष्ट लक्षण मिलें. सजीव की कविताओं में विषयों का विस्तार है जो उनके भीतर निर्माणाधीन एक बड़े फलक के संकेत स्पष्ट रूप से देता है. उदाहरण के तौर पर पृ. 24-25 पर कविता ‘किसका शहर’ पढ़ी जा सकती है. कुछ पंक्तियाँ:
उस फुटपाथ पर/ सुनता था फर्राटे से दौड़ती/ तुम्हारी गाड़ियों का शोर/ आज भी गूंजता है जो मेरे कानों में/ फिर जब रहता था उस तंग सी बस्ती में/ जहाँ करीब से हो कर गुज़रता था/ वो गंदा नाला/ तो याद आती थी मुझे/ गाँव की वो बाढ़ में डूबी फसलें/ और पिता का वो उदास नाकाम चेहरा/ माँ की वो चिंता भरी आँखें...
स्पष्ट है कि कवि-मन के शब्द ठीक उसके भीतर की भाव भूमि से उन अनुभूतियों को ले कर कागज़ पर उतरते हैं जिन्हें कवि स्वयं हो या वह फुटपाथ पर सोने वाला मजदूर, सचमुच में जीता है.
कवि अपने ऑब्ज़र्वेशन को कहीं कहीं बहुत मार्मिक प्रतीकों में प्रकट कर पाठक के भीतर संवेदना का मार्मिक प्रवाह सा कर देता है:
‘स्कूल से लौटते बच्चे/ कंधों पर लादे/ ईसा का सलीब/ भारी भरकम बस्ते...’ (पृ. 33 हुजूम).
राष्टीय स्वर से ओत प्रोत कविता ‘आज़ादी’ (पृ. 73-74) एक अच्छी कविता है जो आज़ादी पर्यंत के मोहभंग को देख किसी भी कवि-मन की सुपरिचित सी लगती टुटन को पाठक मन तक ले जाती है:
मगर बेकार हैं/ चीखें उन औरतों की/ जो घरों में हैं, घरों के बाहर हैं/ झेलती बलात्कार हैं/ चकलों में, चौराहों में शोर है/... हैवान सड़कों पर उतर आए/ सिंहासनों पर विराज गए/ अवाम सो गई/ नपुंसक हो गई कौम/ हिंदुओं ने कहीं तोड़ डाली मस्जिदें/ तो मुसलमानों ने जला डाले मंदिर कहीं...

कविताएं ‘दीवारें’ (पृ. 18-19), ‘ठप्पा’ (पृ. 22-23), ‘ऐसी कोई कविता’ (पृ. 27-28), ‘विलुप्त होते किसान’ (पृ. 30-31), ‘मिलन’ (पृ. 56) आदि भी संग्रह की अच्छी कविताओं के कुछ उदाहरण हैं. कविता ‘एक ही छत के नीचे’ (पृ. 64-65) आधुनिकता और एक संवेदनशील दादा की पोते के प्रति संवेदना के बीच के कंट्रास्ट को उभारती बहुत मार्मिक कविता है. कवि ने चार गज़लें भी लिखी हैं जिन्हें गज़लें कहा नहीं है. गज़ल की एक पहचान यह है कि उसके सभी शेर एक दूसरे से स्वतंत्र अपने अलग अलग भाव प्रस्तुत करते हैं. इस दृष्टि से पृ. 78-81 की चार रचनाएँ गजलें हैं. पर इन गज़लों के शायर सजीव गज़ल के व्याकरण से सर्वथा अनभिज्ञ रह कर उनकी उपेक्षा करते हैं, इसलिए ये गज़लें नहीं हैं. शायर सजीव को इस बात का अहसास बखूबी आत्मसात करना पड़ेगा कि गज़ल लिखनी है तो गज़ल की तहज़ीब से भी बखूबी निभाना पड़ेगा और गज़ल की तहज़ीब का एक महत्वपूर्ण आयाम है उसकी बह्र, जिसकी आज के अनेकों युवा शायर कोई परवाह नहीं करते. इसके बावजूद इन रचनाओं की कुछ पंक्तियाँ सचमुच कवि के महत्वपूर्ण सरोकारों की ओर संकेत करती हैं:

कोई अल्लाह तो कोई राम रट कर कटा है
चौक पर रुसवा जी फिर कोई किताब है शायद
(भूल-चूक पृ. 81).
तस्लीमा नसरीन व एम एफ हुसैन को समर्पित रचना ‘आग जंगल की’ (पृ. 80 ) की ये पंक्तियाँ:
फाड़ देते हैं सफहे जो नागवार गुज़रे
तहरीर के नुमाइंदे ऐसे मौजूद यहाँ चंद हैं.

सजीव के इस संग्रह में एक अन्य सुखद बात यह है कि जिन फीके व निकृष्ट कविता संग्रहों की चर्चा मैंने प्रारंभ में की, उनकी तरह कविताओं की संख्या की अकारण भरमार नहीं है. कहीं भी किसी भी कविता में कलम घिसाई या घसीटबाज़ी के संकेत नहीं हैं. कविता चाहे साधारण प्रभाव वाली हो या सशक्त, हर कविता तन्मयता व प्रतिबद्धता से लिखी गई है, यही इस कवि की भविष्य निधि है, यही उसके प्रति पाठकों की आशा.

समीक्षा – प्रेमचंद सहजवाला - वरिष्ठ कथासहित्यकार

एक पल की उम्र लेकर - पाठकों के विचार/समीक्षा - रश्मि प्रभा

सजीव सारथी ... इनकी पुस्तक की समीक्षा से पहले मैं इनकी खासियत बताना चाहूँगी . सजीव सारथी यानि एक जिंदा सारथी उनका स्वत्व है, उनकी दृढ़ता है, उनका मनोबल है,उनकी अपराजित जिजीविषा है .... हार मान लेना इनकी नियति नहीं , इनसे मिलना , इन्हें पढ़ना , इनके गीतों को सुनना जीवन से मिलना है . हिंद युग्म के आवाज़ http://podcast.hindyugm.com/ से मैंने इनको जाना , पहली बार देखा प्रगति मैदान में हिन्दयुग्म के समारोह में .... कुछ भावनाओं को शब्द दे पाना मुमकिन नहीं होता , फिर भी प्रयास करते हैं हम और .... लोग कहते हैं जताना नहीं चाहिए , पर जताए बिना हम आगे कैसे बढ़ सकते ये कहकर कि इस अनकही पहेली को सुलझाओ ....मैं भी नहीं बढ़ सकती, यूँ कहें बढ़ना नहीं चाहती . अपने 'आज' से संभवतः सजीव जी को कहीं शिकायत होगी, पर मेरे लिए वह कई निराशा के प्रेरणास्रोत हैं और उनकी इसी प्रेरणा के ये स्वर हैं

और है उनका यह संग्रह 'एक पल की उम्र लेकर' !
अपनी पहली रचना 'सूरज' में कवि सूरज से एहसास हाथ में लेकर भी सूरज को मीलों दूर पाता है और इस रचना में मैंने सूरज को कवच की तरह पाया ... जो कवि से कवि के शब्द कहता है -

"मैं छूना चाहता हूँ तुम्हें
महसूस करना चाहता हूँ
पर ....
तुम कहीं दूर बैठे हो"

कवि सूरज को सुनता है (मेरी दृष्टि , मेरी सोच में) और भ्रमित कहता है-

'तुम कहते तो हो ज़रूर
पर आवाजों को निगल जाती हैं दीवारें ...'
फिर अपनी कल्पना को देखता वह कहता है -
'याद होगी तुम्हें भी
मेरे घर की वो बैठक
जहाँ भूल जाते थे तुम
कलम अपनी ...'

दूसरों की तकलीफों को गहरे तक समझता है कवि, तभी तो चाहता है ...


"काश !..........
मैं कोई ऐसी कविता लिख पाता
कि पढनेवाला पेट की भूख भूल जाता

...
पढनेवाला अपनी थकान को
खूंटी पर उतार टाँगता
....
देख पाता अक्स उसमें
और टूटे ख़्वाबों की किरचों को जोड़ पाता
...काश !'

समसामयिक विषय पर भी कवि ने ध्यान आकर्षित किया है और करवाया है -

'गाँव अब नहीं रहे
प्रेमचंद की कहानियोंवाले
...........
सभ्यता के विकास में अक्सर
विलुप्त हो जाती हैं
हाशिये पर पड़ी प्रजातियाँ
.........
विलुप्त हो रहे हैं हल जोतते
जुम्मन और होरी आज
विलुप्त हो रहा है किसान !'

प्रतिस्पर्द्धा, सबकुछ पा लेने की जी तोड़ दौड़, हर फ्रेम को अपना बना लेने की मानसिकता ने बच्चों से पारले की मिठास छीन ली है
तभी तो -

'स्कूल से लौटते बच्चे
काँधों पर लादे
ईसा का सलीब '.... से दिखाई देते हैं !

और ऐसे में ही अपने बचपन की उतारी केंचुली हमें मनमोहक नज़र आने लगती है. और अनमना मन
कहता है -

'ऐसा स्पर्श दे दो मुझे
संवेदना की आखिरी परत तक
जिसकी पहुँच हो ...'

अन्यथा ईश्वर प्रदत्त कस्तूरी से अनजान मनुष्य कामयाबी की गुफा में अदृश्य होने लगता है , जिसे कवि की ये पंक्तियाँ और स्पष्ट करती हैं -

'कामयाबी एक ऐसा चन्दन है
जिससे लिपट कर हँसता है
नाग - अहंकार का'

ज़िन्दगी जाने कितने रास्तों से गुजरती है , पर सबसे नाज़ुक रास्ता प्यार का लचीली पगडंडियों सा होता है ... हर शाम देता है दस्तक, कभी हंसकर ,
कभी नम होकर और इस डर से कि,

'जाने कब वो लौट जाए ...
समेट लेता हूँ
अश्कों के मोती
और सहेज के रख लेता हूँ ....'

प्यार, त्याग, स्पर्श, ख्याल, मासूमियत, ताजगी सबकुछ है इस 'एक पल की उम्र लेकर ' में . बस एक पन्ना पलटिये और शुरू से अंत तक का सफ़र तय कर लीजिये. फिर - बताइए ज़रूर , क्या इन पलों की सौगात अनमोल नहीं !!!

कवियत्री - रश्मि प्रभा

एक पल की उम्र लेकर - पाठकों के विचार/समीक्षा - ऋषि एस

A wonderful collection of poems which reflect Sajeev's care for relationships, passion for the country and concern for society.I am privileged to have had the opportunity to tune some of these poems.

Rishi S,
Composer, Hyderabad

एक पल की उम्र लेकर - पाठकों के विचार/समीक्षा - अनुराग यश

"एक पल की उम्र लेकर" सजीव सारथी की ६८ अदभुत कविताओं का संकलन है. काफी दिनों बाद कुछ ऐसा पढ़ने को मिला है जो कि 'गागर में सागर' भरने जैसा है. रचना 'विलुप्त होते किसान' जहाँ आपको धरती से जोड़ कर आन्दोलित करते हैं वहीँ लेखक की एक कविता शीर्षक 'ऐसी कोई कविता' पाठक को ठंडक देती है. कविता 'नौ महीने' एक कठोर सत्यता का एहसास कराती है तो वहीँ 'स्पर्श की गर्मी' शीर्षक कविता आपको अंदर तक भिगो कर रख देती है. कवि का देश प्रेम दिखता है 'सुलगता दर्द-कश्मीर में' और अन्य कवितायें जैसे ठप्पा, जंगल, गिरेबाँ, सूखा अलग अलग विषय होते हुए भी आपको मैथ कर रख देती है, अंत में दस क्षणिकाओं में से एक क्षणिका 'पेंडुलम' एक बुद्धिजीवी व्यक्ति की व्यथा है जो कि सजीव सारथी ने सजीव कर दी है. मेरा अपना मत है कि ये संकलन अपने आप में इतना मुक्कमल है कि अब लेखक को आगे न कुछ लिखने की अवश्यकता है और न समाज को कुछ और देने की.


यश

(लेखक, निर्माता, निर्देशक)

एक पल की उम्र लेकर - पुस्तक का दिल्ली विमोचन

हर महीने के आखिरी शनिवार को अकादमी ऑफ फाईन आर्ट्स एंड लिटरेचर में होने वाली काव्यात्मक गोष्ठी “डायलॉग” इस बार 25 जून को संपन्न हुई। कार्यक्रम तीन चरणों में संपन्न हुआ। सबसे पहले भारत के पिकासो मकबूल फ़िदा हुसैन और कवि रंजीत वर्मा की माता को श्रद्धांजलि अर्पित की गयी। उसके बाद हिन्दयुग्म के आवाज़ मंच के संपादक एवं युवा कवि सजीव सारथी की पुस्तक “एक पल की उम्र लेकर” का विमोचन करते हुए ब्रजेन्द्र त्रिपाठी ने कहा कि सजीव की कविताओं पर उनके मलयाली होने की छाप नहीं है वो पूरी तरह से हिंदी की कविताएँ हैं। सहज भाषा के साथ साथ सजीव सारथी की कविताएँ प्रतीकों के माध्यम से आज के हालत का अच्छा जायजा लेती हैं। इसके बाद डायलाग के संचालक एवं कवि मिथिलेश श्रीवास्तव नें सजीव सारथी की कविताओं पर विशेष टिप्पणी की। इन विशेष टिप्पणियों के बाद सजीव सारथी ने अपनी कविताओं का पाठ किया जो जीवन और समाज के विभिन्न पहलुओं को छू रही थीं। एक तरफ उनकी कविताओं में मुंबई में उत्तर भारतीयों पर होने वाले अत्याचारों का दर्द था तो दूसरी तरफ ‘गरेबाँ’ जैसी कविता में आत्मविश्लेषण था। “नौ महीने” जैसी कविता में उन्होंनें एक माँ की भावनाओं को छूने की कोशिश की।

खुशबुओं की एक पूरी दुनिया
कवियों की एक नयी जमात की खोज हुई है। उनकी महत्वाकांक्षाएं एक दम अलग हैं। वे दीवार पर कविता लिखते हैं, ब्लॉग पर कविता लिखते हैं। वे अलक्षित पाठक के लिए कविता लिखते हैं। उन्हें प्रचार नहीं चाहिए, अपने सामने बैठे श्रोता नहीं चाहिए, उन्हें समीक्षकों की राय नहीं चाहिए। उनकी कविता पर आलोचकीय निगाह रखने वाली आँखें नहीं चाहिए। वे इन आँखों से सहमे भी नहीं होते। ब्लॉग पर कविता लिख दिया, किसी ने पढ़ लिया, किसी ने कुछ लिख दिया। काफी दिन तक उनकी कविता अलक्षित भी रह गयी तो कोई बात नहीं। वे इस जल्दी में रहते भी नहीं हैं कि कोई अभी उनकी कविता पढ़ ले, कोई उनका संग्रह छपवा दे, कोई कुछ टिप्पणी कर दे।
शैलेश भारतवासी, हिन्दयुग्म जिनका अपना ब्लॉग हैं, ऐसे कवियों को यूनिकोडीय कवि कहते हैं। शायद इसलिए कि वे लोग इन्टरनेट पर हिंदी भाषा के यूनिकोडीय रूप में कविता लिखते हैं। शैलेश, ऐसे कवियों को जो देवदूतों की तरह छिपे रहते हैं, धरती पर उतारने की कोशिश करते हैं, इन्टरनेट के बाहर इन लोगों को दुनिया में पहचान देने की कोशिश करते हैं। ऐसे कवियों की एक पुस्तक “सम्भावना डॉट कॉम” शैलेश भारतवासी नें पिछले दिनों छापी थी। उन कविताओं को पढकर यह एहसास हुआ कि वे कविताएँ सहज, सीधी और साफ़ अभिव्यक्ति की बड़ी मिसाल हैं। इसी संग्रह के मार्फ़त कुछ यूनिकोडीय कवियों से परिचय हुआ था। अकादमी ऑफ फाइन आर्ट्स एंड लिटरेचर के डायलॉग कार्यक्रम में ऐसे कुछ कवियों का कविता पाठ भी हुआ था। सजीव सारथी उन्हीं में से एक यूनिकोडीय कवि है। इन्टरनेट पर कविता लिखने वाले, स्वाभाव से संकोची, व्यव्हार में सरल। सरलता और संकोच के मिलने से एक अलग इंसान का निर्माण होता है। वह इंसान अच्छा इंसान होता है। सजीव अच्छे इंसान हैं। उनकी यह अच्छाई उनकी कविता में भी झलकती है, उनके व्यव्हार में झलकती है और उनकी पारदर्शी आँखों में झलकती है। वे मलयाली हैं, इसलिए हिंदी भाषा के उनके उच्चारण में एक अलग मिठास है।
“एक पल की उम्र लेकर” उनके नये संग्रह का नाम है। इसे केरल के हेवेन्ली बेबी बुक्स प्रकाशन नें छापा है। यह उनकी पहली किताब है। उनकी एक कविता है “सूरज” जो एक स्मृति-कोष की तरह है। अनेक नॉस्टैल्जिक स्मृतियों से परिपूर्ण। लेकिन यह सिर्फ नॉस्टैल्जिक होना नहीं है बल्कि मानुष की संवेदनाओं को अनेक स्तरों पर महसूस करने की कोशिश है। सूरज कविता में दो पंक्तियों के मुहावरे जैसी एक टिपण्णी है जो पिछले सात वर्षों की राजनीति का ऐतिहासिक दस्तावेज़ सी लगती है। “आज बरसों बाद / खुद को पाता हूँ / हाथ में लाल गेंद फिर लिए बैठा -एक बड़ी चट्टान के सहारे।“ इन पंक्तियों को पढ़ते हुए मुझे सी पी एम् और कांग्रेस के गलबहियों के दिन याद आते रहे। “किसी नदी की तरह” कविता में एक बोतल में दोनों के रहने का दृश्य है- एक देवता, एक शैतान। “साहिल की रेत” की पंक्तियाँ हैं “उन नन्ही / पगडंडियों से चलकर हम / चौड़ी सड़कों पर आ गए।“ इन पंक्तियों में प्राकृतिक जीवन की सरलता है, तो विस्थापन का दंश भी है। नन्ही पगडंडियाँ मासूमियत और तकलीफों की प्रतीक हैं। पगडंडियों से चौड़े रास्ते पर चले जाना विस्थापन है जो असंगत प्रकृति विरोधी विकास के अवधारणाओं का विरोध भी है।

सजीव मलयाली हैं, जाहिर है कि एक प्रकृति संपन्न, पानी से भी तरल जीवन को छोड़कर आने वाले लोगों में से हैं। उत्तर भारत के विस्थापन के दर्द से भी अधिक गहरा दर्द मलयालम प्रदेश से विस्थापन का है। इस विस्थापन के संघर्ष में प्यार और अपनापे की भी उपस्थिति है। “तुम्हारी रसोई से उठती उस महक को / पहचानती है मेरी भूख अब भी।“ इन पंक्तियों में महक और भूख के रिश्ते को रेखांकित किया गया है। बचपन की स्मृतियों में कई खुशबुओं की भी स्मृति है। वे खुशबुएँ अब कहीं से नहीं आती हैं। खुशबुओं की एक पूरी दुनिया हुआ करती थी, वह दुनिया कहाँ गयी..! आधुनिक और विकासशील बनने की अंधी दौड़ में वे खुशबुएँ भी गायब हो गयी हैं। खैर, जब से सभ्यता है, विकास है हम बहुत कुछ खोते हुए आज यहाँ पहुँचे हैं। मान लें कि पाँच हज़ार ही पुराने सभ्य मनुष्य हैं, तो याद रखने की बहुत सारी चीज़ें हमने खो दी हैं। याद रखने की नयी चीजें हमनें बनायीं नहीं हैं। सिर्फ खोना है, पाना कुछ भी नहीं है, यह बात सजीव की किताब में फैली हुई है जो मेरे लिए महत्वपूर्ण है। कविता बहुत कुछ बताती है।

- मिथिलेश श्रीवास्तव
सजीव सारथी की पुस्तक "एक पल की उम्र लेकर" पर मिथिलेश श्रीवास्तव की टिप्पणी


सजीव सारथी की काव्यपाठ के बाद डायलॉग गोष्ठी में आमत्रित कवियों का काव्यपाठ ब्रजेन्द्र त्रिपाठी की अध्यक्षता और शिवमंगल सिद्धांतकर जैसे रचनाकारों की सानिध्य में शुरू हुआ। गजरौला से आये युवा कवि अखिलेश श्रीवास्तव नें सबसे पहले कविता पाठ किया और अपनी पहली कविता उन्होंनें सजीव सारथी के व्यक्तित्व को समर्पित कर दी। इसके बाद उन्होंनें अपनी क्षणिकाओं चीनी, गेहूँ, चावल, दाल से बढती हुई महंगे पर टिप्पणियां की तो दूसरी तरफ नारी, बेटी, माँ, पत्नी व बहन जैसी रचनाओं से रिश्तों के महत्व को रेखांकित किया। कर्ज में कोंपल नाम की कविता नें अखिलेश के काव्यात्मक विस्तार को स्पष्ट किया और किसानों द्वारा की जाने वाले आत्महत्या के कारणों की पड़ताल की। उसके बाद आये कवि स्वप्निल तिवारी नें कुछ ग़ज़लों का पाठ किया और माहौल का रुख मोड़ने की कोशिश की, एक “शामो-सहर” और “तुम आओ तो’ कविताओं में प्रेम के रोमान को छूने की कोशिश की और दूसरी तरफ “खिड़कियाँ” नामक कविता में खिड़की को नए ढंग से देखने और दिखाने की कोशिश की। उसके बाद आई कवियित्री सुनीता चोटिया नें “बुड्ढा है कि मरता नहीं” नाम की कविता का पाठ किया जिससे माहौल को हल्का हो गया तथा “धरती का गीत” नाम के गीत से लयात्मक माहौल के रचना हुई। सुनीता चोटिया के बाद एक और कवियित्री रजनी अनुरागी नें अपनी विभिन्न रंगों से सजी कविताओं का पाठ किया जिसमें एक तरफ “भूख” जैसी कविता थी तो दूसरी तरफ प्रेम के एहसासों से सराबोर “तुम्हारा कोट” जैसी कविता सुनाई। जनज्वार नाम की कविता ने तहरीर चौक का उदाहरण देकर क्रांति की संभावनाओं की तरफ ध्यान खींचा। इसके बाद आये उर्दू शायर अब्दुल क़ादिर नें अपनी ग़ज़लों से माहौल को ही बादल दिया और एक तरफ प्यार के रूहानी एहसास से भरे “हिचिकियां आ रही हैं रह रह कर/ यानि तुम आज भी सलामत हो” जैसे शेर सुनाये तो दूसरी तरफ “प्यार से बोलना भी मुश्किल है/ लोग तो घर बसाने लगते हैं जैसे हल्के फुल्के शेर भी सुनाये जिन्होनें माहौल को बादल दिया। आज कल के फैले भ्रष्टाचार की तरफ इशारा करते हुए उन्होंनें शेर कहा “एक दिन तीरगी में रह कर देख/ कितने घर जगमगाने लगते हैं”।

तेजेन्द्र लूथरा के कविता पाठ के बाद दिनेश कुमार शुक्ल नें ब्लॉगस पर उपस्थित कविताओं की शुद्धता पर बात की और कहा कि वो बहुत निर्मल हैं जिनमें एक उदासी के बावजूद उम्मीद है। उन्होंनें यह भी कहा कि बदलते हुए समय के साथ हमारी अभिव्यक्ति बदली है लेकिन हमारी भाषा में उसे व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं हैं और दूसरी भाषा का प्रयोग करना पड़ता है। इस लिए अपनी भाषा के नए शब्दों की इजाद बहोत आवश्यक है। शिवमंगल सिद्धांतकार नें कविता और क्रांति के संबंध को स्पष्ट किया और बताया कि ये एक दूसरे को परस्पर किस तरह प्रभावित करते हैं। अपने अध्यक्षीय भाषण में केन्द्रीय साहित्य अकादमी के उप सचिव ब्रजेन्द्र त्रिपाठी नें दिनेश कुमार शुक्ल द्वारा बताई गयी समस्या का निदान बतायाकि खुद को अभिव्यक्त करने के लिए जिन शब्दों की कमी पड़ रही हैं उन्हें हिंदी की विभिन्न बोलियों से आयातित करने चाहिए। उन्होंनें कविता के सम्प्रेषण के लिए विभिन्न फेसबुक और ट्विट्टर जैसे माध्यमों को समझने की आवश्यकता पर भी बल दिया

सुनिए ऑडियो में कार्यक्रम के कुछ अंश


एक पल कि उम्र लेकर का स्ट्रीट लॉन्च

जब मेरा पहला काव्य संकलन मेरे हाथों में आया तो प्रकाशक ने जो कि कोच्ची के थे इसका विमोचन अपने शहर में करने की योजना बनाई. पर चूँकि मेरी ये तमाम कवितायेँ दिल्ली शहर और यहाँ मिले किरदारों की कहानियाँ बयान करती है मेरा मन हुआ कि क्यों न शहर भर में घूमकर एक स्ट्रीट विमोचन किया जाये मेरे आपके जैसे आम इंसानों के हाथों, क्योंकि आखिरकार तम्मन्ना तो यही है न ये आम लोगों द्वारा पढ़ी और सराही जाये. इसी स्ट्रीट लॉन्च के कुछ चित्र

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