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22.11.12

विश्वास का गर्भपात

भ्रमित, शंकित सा मन,
चितित, कुंठित सा कुछ,
माथे पे शिकन की काली लकीरें पड़ती है,
वहम की परछाईयाँ पांव जोड़े चलती है,
विस्मृत से हो जाते हैं समय के सन्दर्भ सब,
दलीलों को काटती दलीलें,
कुछ और भी नुकीली हो जाती है जब,
निर्णय किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुँच पाता,
और अनिर्णय ही निर्मम फैसले सुनाता है तब,

प्रसव पीड़ा से भी अधिक असहनीय,
था संदेह का अग्निविष पीना,
कटीले शब्दों की चोट से,
दम तोड़ता एक रिश्ता,
लहूलुहान हो गयी थी कोख,
जब गर्भ में ही हो गया था,
विश्वास का गर्भपात....  

18.4.08

सुलगता दर्द ( कश्मीर )

उन खामोश वादियों में,
किसी शांत सी झील पर,
जब लुढ़क कर गिरता है,
कोई पत्थर, किसी पहाडी से,
तो उसे लगता है-
कहीं बम फटा...
वह दोनों कानों पर हाथ रखकर,
चीखता है , और सहम कर सिमट जाता है,
अपने अंधेरों में,
अंधेरे - जो पाले हैं उसने,
अपनी आखों में,
अंधेरे - जो बहते हैं उसकी रगों में,
उसकी बंद ऑंखें,
कभी खुलती नही रोशनी में,
एक बार देखी थी, उजाले में मैंने,
वो ऑंखें,
"ऐ के ४७" की गोलियों के सुराख थे उसमें,
धुवाँ सा जल रहा था,
उस पथरीली जमीं पर,
कोई लहू का कतरा न था,
मगर कल रात जब वो,
कुरेद रहा था मिटटी,
मसल रहा था फूल पत्तियों को,
बेदिली से तब,
हाँ तब... उसकी उन आखों से बहा था,
खौलते लावे सा,
गर्म "सुलगता दर्द..."

8.5.07

सिरफिरा है वक़्त

उदासी की नर्म दस्तक ,
होती है दिल पे हर शाम ,
और गम की गहरी परछाईयाँ ,
तनहाईयों का हाथ थामे ,
चली आती है -
किसी की भीगी याद ,
आखों मे आती है ,
अश्कों मे बिखर जाती है ।

दर्द की कलियाँ
समेट लेटा हूँ मैं ,
अश्कों के मोती
सहेज के रख लेता हूँ मैं ...


जाने कब वो लौट आये .....

वो ठंडी चुभन ,
वो भीनी खुश्बू ,
अधखुली धुली पलकों का
नर्म नशीला जादू ,
तस्सवुर की सुर्ख किरणें ,
चन्द लम्हों को जैसे ,
डूबते हुए सूरज में समां जाती है ,
शाम के बुझते दीयों में ,
एक चमक सी उभर आती है ,

टूटे हुए लम्हे बटोर लेता हूँ मैं ,
बुझती हुई चमक बचा लेता हूँ मैं ,

जाने कब वो लौट आये ......

सरफिरा है वक़्त,
कभी कभी लौट भी आता है ,

दोहराने - आपने आप को ।