अब बात आती है उनकी पुस्तक “एक पल की उम्र लेकर” तो मुझे लगता है, वर्तमान परिवेश की पीड़ा, तड़प, व्याकुलता, अकुलाहट, आक्रोश को उन्होने अपनी कविताओं में बखूबी निभाया है। कितनी पीड़ा, कितना आक्रोश है उनकी इन पंक्तियों में कि... कैसे यकीं दिलाओगे उसे कि/ महफूज है वो/ खबरों की काली सुर्खियाँ/ रोज पढ़ती है वो।
यह कहना कतई गलत नही होगा कि सजीव ने ज़िंदगी की वास्तविकताओं से अपने साक्षात्कार को पूर्ण दायित्व-बोध के साथ उकेरते हुए ईमानदारी के साथ अपनी रचनाधर्मिता का निर्वाह किया है। उनकी यह कविता सचमुच बार-बार पढ़ने का दिल करता है... काश/ मै ऎसी कोई कविता लिख पाता/ कि पढ़ने वाला/ देख पाता अपना अक्स उसमे/ और टूटे ख्वाबों की किरचों को/ फ़िर से जोड़ पाता।
निम्न पंक्तियाँ बताती है कि हर छोटी से छोटी बात को भी कवि ने अपनी कविताओं में जीवन्तता प्रदान की है...कवि अपनी एक कविता में कहता है...
वापसी में हम खेत से होकर जाते थे/ जहाँ पानी भरा रहता था/ कीचड़ से सने पाँव लेकर/ कच्ची पगडंडियों से गुजरते थे/ उन कदमों के निशाँ/ अभी तक मिटे नही हैं।
कवि की संघर्ष करने की शक्ति उसमें जीजिविषा और जीवट उत्पन्न करती है। ढुलमुल ज़िंदगी और मानवीय व्यक्तित्व को खंडित करने वाली शक्तियों से कवि आहत अवश्य होता है, किंतु निराश नही है। मन की आँखों में सपने संजोये, अपने अस्तित्व के प्रति सजग कवि कहता है कि...
डूबना तो एक दिन किनारों को भी है/ फ़िर क्यों, ना खुदा को खुदा कहें/ क्यों सहारों को ढूँढते रहें/ आओ वक्त के पंखों को परवाज दें/ एक नयी उड़ान दें/ अनजान दिशाओं की ओर।
आप कहेंगे कि आज के युग में सहज, सरल, कौन है? परन्तु सब कुछ कर जाने का जज्बा दिल में होते हुए भी कवि स्वभाव से सरल है, और कितनी सहजता से कवि कहता है...
मुझको था भरम /कि है मुझी से सब रोशनाँ/ मै अगर जो बुझ गया तो/ फ़िर कहाँ ये बिजलियाँ/... एक नासमझ इतरा रहा था/ एक पल की उम्र लेकर...।
मुझे नही लगता कि हर कविता को समझाना अनिवार्य है, क्योंकि यदि सम्पूर्ण काव्य-संग्रह की एक-एक कविता ध्यान से पढी जाये तो पाठक स्वय को उन कविताओं का लेखक समझ बैठेगा। मुझे भी एक पल को लगा कि जैसे ये कवितायें तो मै जी चुकी हूँ, बस पृष्ठों पर आज उभर आई है। मेरी शुभकामनाएं है सजीव तुम्हारी कलम हमेशा ऎसे ही चलती रहे.... और गीत,गज़ल,कविताओं के पुष्प वाटिका में सदैव खिलते रहें.।
एक पल की जिंदगी से ही... सूरज के रथ पर बैठकर/ जारी रखना मगर/ तुम अपना सफ़र।
सुनीता शानू
कवियित्री एवं रेडियो उद्घोषिका
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