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11.3.12

एक पल की उम्र लेकर - पुस्तक का दिल्ली विमोचन

हर महीने के आखिरी शनिवार को अकादमी ऑफ फाईन आर्ट्स एंड लिटरेचर में होने वाली काव्यात्मक गोष्ठी “डायलॉग” इस बार 25 जून को संपन्न हुई। कार्यक्रम तीन चरणों में संपन्न हुआ। सबसे पहले भारत के पिकासो मकबूल फ़िदा हुसैन और कवि रंजीत वर्मा की माता को श्रद्धांजलि अर्पित की गयी। उसके बाद हिन्दयुग्म के आवाज़ मंच के संपादक एवं युवा कवि सजीव सारथी की पुस्तक “एक पल की उम्र लेकर” का विमोचन करते हुए ब्रजेन्द्र त्रिपाठी ने कहा कि सजीव की कविताओं पर उनके मलयाली होने की छाप नहीं है वो पूरी तरह से हिंदी की कविताएँ हैं। सहज भाषा के साथ साथ सजीव सारथी की कविताएँ प्रतीकों के माध्यम से आज के हालत का अच्छा जायजा लेती हैं। इसके बाद डायलाग के संचालक एवं कवि मिथिलेश श्रीवास्तव नें सजीव सारथी की कविताओं पर विशेष टिप्पणी की। इन विशेष टिप्पणियों के बाद सजीव सारथी ने अपनी कविताओं का पाठ किया जो जीवन और समाज के विभिन्न पहलुओं को छू रही थीं। एक तरफ उनकी कविताओं में मुंबई में उत्तर भारतीयों पर होने वाले अत्याचारों का दर्द था तो दूसरी तरफ ‘गरेबाँ’ जैसी कविता में आत्मविश्लेषण था। “नौ महीने” जैसी कविता में उन्होंनें एक माँ की भावनाओं को छूने की कोशिश की।

खुशबुओं की एक पूरी दुनिया
कवियों की एक नयी जमात की खोज हुई है। उनकी महत्वाकांक्षाएं एक दम अलग हैं। वे दीवार पर कविता लिखते हैं, ब्लॉग पर कविता लिखते हैं। वे अलक्षित पाठक के लिए कविता लिखते हैं। उन्हें प्रचार नहीं चाहिए, अपने सामने बैठे श्रोता नहीं चाहिए, उन्हें समीक्षकों की राय नहीं चाहिए। उनकी कविता पर आलोचकीय निगाह रखने वाली आँखें नहीं चाहिए। वे इन आँखों से सहमे भी नहीं होते। ब्लॉग पर कविता लिख दिया, किसी ने पढ़ लिया, किसी ने कुछ लिख दिया। काफी दिन तक उनकी कविता अलक्षित भी रह गयी तो कोई बात नहीं। वे इस जल्दी में रहते भी नहीं हैं कि कोई अभी उनकी कविता पढ़ ले, कोई उनका संग्रह छपवा दे, कोई कुछ टिप्पणी कर दे।
शैलेश भारतवासी, हिन्दयुग्म जिनका अपना ब्लॉग हैं, ऐसे कवियों को यूनिकोडीय कवि कहते हैं। शायद इसलिए कि वे लोग इन्टरनेट पर हिंदी भाषा के यूनिकोडीय रूप में कविता लिखते हैं। शैलेश, ऐसे कवियों को जो देवदूतों की तरह छिपे रहते हैं, धरती पर उतारने की कोशिश करते हैं, इन्टरनेट के बाहर इन लोगों को दुनिया में पहचान देने की कोशिश करते हैं। ऐसे कवियों की एक पुस्तक “सम्भावना डॉट कॉम” शैलेश भारतवासी नें पिछले दिनों छापी थी। उन कविताओं को पढकर यह एहसास हुआ कि वे कविताएँ सहज, सीधी और साफ़ अभिव्यक्ति की बड़ी मिसाल हैं। इसी संग्रह के मार्फ़त कुछ यूनिकोडीय कवियों से परिचय हुआ था। अकादमी ऑफ फाइन आर्ट्स एंड लिटरेचर के डायलॉग कार्यक्रम में ऐसे कुछ कवियों का कविता पाठ भी हुआ था। सजीव सारथी उन्हीं में से एक यूनिकोडीय कवि है। इन्टरनेट पर कविता लिखने वाले, स्वाभाव से संकोची, व्यव्हार में सरल। सरलता और संकोच के मिलने से एक अलग इंसान का निर्माण होता है। वह इंसान अच्छा इंसान होता है। सजीव अच्छे इंसान हैं। उनकी यह अच्छाई उनकी कविता में भी झलकती है, उनके व्यव्हार में झलकती है और उनकी पारदर्शी आँखों में झलकती है। वे मलयाली हैं, इसलिए हिंदी भाषा के उनके उच्चारण में एक अलग मिठास है।
“एक पल की उम्र लेकर” उनके नये संग्रह का नाम है। इसे केरल के हेवेन्ली बेबी बुक्स प्रकाशन नें छापा है। यह उनकी पहली किताब है। उनकी एक कविता है “सूरज” जो एक स्मृति-कोष की तरह है। अनेक नॉस्टैल्जिक स्मृतियों से परिपूर्ण। लेकिन यह सिर्फ नॉस्टैल्जिक होना नहीं है बल्कि मानुष की संवेदनाओं को अनेक स्तरों पर महसूस करने की कोशिश है। सूरज कविता में दो पंक्तियों के मुहावरे जैसी एक टिपण्णी है जो पिछले सात वर्षों की राजनीति का ऐतिहासिक दस्तावेज़ सी लगती है। “आज बरसों बाद / खुद को पाता हूँ / हाथ में लाल गेंद फिर लिए बैठा -एक बड़ी चट्टान के सहारे।“ इन पंक्तियों को पढ़ते हुए मुझे सी पी एम् और कांग्रेस के गलबहियों के दिन याद आते रहे। “किसी नदी की तरह” कविता में एक बोतल में दोनों के रहने का दृश्य है- एक देवता, एक शैतान। “साहिल की रेत” की पंक्तियाँ हैं “उन नन्ही / पगडंडियों से चलकर हम / चौड़ी सड़कों पर आ गए।“ इन पंक्तियों में प्राकृतिक जीवन की सरलता है, तो विस्थापन का दंश भी है। नन्ही पगडंडियाँ मासूमियत और तकलीफों की प्रतीक हैं। पगडंडियों से चौड़े रास्ते पर चले जाना विस्थापन है जो असंगत प्रकृति विरोधी विकास के अवधारणाओं का विरोध भी है।

सजीव मलयाली हैं, जाहिर है कि एक प्रकृति संपन्न, पानी से भी तरल जीवन को छोड़कर आने वाले लोगों में से हैं। उत्तर भारत के विस्थापन के दर्द से भी अधिक गहरा दर्द मलयालम प्रदेश से विस्थापन का है। इस विस्थापन के संघर्ष में प्यार और अपनापे की भी उपस्थिति है। “तुम्हारी रसोई से उठती उस महक को / पहचानती है मेरी भूख अब भी।“ इन पंक्तियों में महक और भूख के रिश्ते को रेखांकित किया गया है। बचपन की स्मृतियों में कई खुशबुओं की भी स्मृति है। वे खुशबुएँ अब कहीं से नहीं आती हैं। खुशबुओं की एक पूरी दुनिया हुआ करती थी, वह दुनिया कहाँ गयी..! आधुनिक और विकासशील बनने की अंधी दौड़ में वे खुशबुएँ भी गायब हो गयी हैं। खैर, जब से सभ्यता है, विकास है हम बहुत कुछ खोते हुए आज यहाँ पहुँचे हैं। मान लें कि पाँच हज़ार ही पुराने सभ्य मनुष्य हैं, तो याद रखने की बहुत सारी चीज़ें हमने खो दी हैं। याद रखने की नयी चीजें हमनें बनायीं नहीं हैं। सिर्फ खोना है, पाना कुछ भी नहीं है, यह बात सजीव की किताब में फैली हुई है जो मेरे लिए महत्वपूर्ण है। कविता बहुत कुछ बताती है।

- मिथिलेश श्रीवास्तव
सजीव सारथी की पुस्तक "एक पल की उम्र लेकर" पर मिथिलेश श्रीवास्तव की टिप्पणी


सजीव सारथी की काव्यपाठ के बाद डायलॉग गोष्ठी में आमत्रित कवियों का काव्यपाठ ब्रजेन्द्र त्रिपाठी की अध्यक्षता और शिवमंगल सिद्धांतकर जैसे रचनाकारों की सानिध्य में शुरू हुआ। गजरौला से आये युवा कवि अखिलेश श्रीवास्तव नें सबसे पहले कविता पाठ किया और अपनी पहली कविता उन्होंनें सजीव सारथी के व्यक्तित्व को समर्पित कर दी। इसके बाद उन्होंनें अपनी क्षणिकाओं चीनी, गेहूँ, चावल, दाल से बढती हुई महंगे पर टिप्पणियां की तो दूसरी तरफ नारी, बेटी, माँ, पत्नी व बहन जैसी रचनाओं से रिश्तों के महत्व को रेखांकित किया। कर्ज में कोंपल नाम की कविता नें अखिलेश के काव्यात्मक विस्तार को स्पष्ट किया और किसानों द्वारा की जाने वाले आत्महत्या के कारणों की पड़ताल की। उसके बाद आये कवि स्वप्निल तिवारी नें कुछ ग़ज़लों का पाठ किया और माहौल का रुख मोड़ने की कोशिश की, एक “शामो-सहर” और “तुम आओ तो’ कविताओं में प्रेम के रोमान को छूने की कोशिश की और दूसरी तरफ “खिड़कियाँ” नामक कविता में खिड़की को नए ढंग से देखने और दिखाने की कोशिश की। उसके बाद आई कवियित्री सुनीता चोटिया नें “बुड्ढा है कि मरता नहीं” नाम की कविता का पाठ किया जिससे माहौल को हल्का हो गया तथा “धरती का गीत” नाम के गीत से लयात्मक माहौल के रचना हुई। सुनीता चोटिया के बाद एक और कवियित्री रजनी अनुरागी नें अपनी विभिन्न रंगों से सजी कविताओं का पाठ किया जिसमें एक तरफ “भूख” जैसी कविता थी तो दूसरी तरफ प्रेम के एहसासों से सराबोर “तुम्हारा कोट” जैसी कविता सुनाई। जनज्वार नाम की कविता ने तहरीर चौक का उदाहरण देकर क्रांति की संभावनाओं की तरफ ध्यान खींचा। इसके बाद आये उर्दू शायर अब्दुल क़ादिर नें अपनी ग़ज़लों से माहौल को ही बादल दिया और एक तरफ प्यार के रूहानी एहसास से भरे “हिचिकियां आ रही हैं रह रह कर/ यानि तुम आज भी सलामत हो” जैसे शेर सुनाये तो दूसरी तरफ “प्यार से बोलना भी मुश्किल है/ लोग तो घर बसाने लगते हैं जैसे हल्के फुल्के शेर भी सुनाये जिन्होनें माहौल को बादल दिया। आज कल के फैले भ्रष्टाचार की तरफ इशारा करते हुए उन्होंनें शेर कहा “एक दिन तीरगी में रह कर देख/ कितने घर जगमगाने लगते हैं”।

तेजेन्द्र लूथरा के कविता पाठ के बाद दिनेश कुमार शुक्ल नें ब्लॉगस पर उपस्थित कविताओं की शुद्धता पर बात की और कहा कि वो बहुत निर्मल हैं जिनमें एक उदासी के बावजूद उम्मीद है। उन्होंनें यह भी कहा कि बदलते हुए समय के साथ हमारी अभिव्यक्ति बदली है लेकिन हमारी भाषा में उसे व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं हैं और दूसरी भाषा का प्रयोग करना पड़ता है। इस लिए अपनी भाषा के नए शब्दों की इजाद बहोत आवश्यक है। शिवमंगल सिद्धांतकार नें कविता और क्रांति के संबंध को स्पष्ट किया और बताया कि ये एक दूसरे को परस्पर किस तरह प्रभावित करते हैं। अपने अध्यक्षीय भाषण में केन्द्रीय साहित्य अकादमी के उप सचिव ब्रजेन्द्र त्रिपाठी नें दिनेश कुमार शुक्ल द्वारा बताई गयी समस्या का निदान बतायाकि खुद को अभिव्यक्त करने के लिए जिन शब्दों की कमी पड़ रही हैं उन्हें हिंदी की विभिन्न बोलियों से आयातित करने चाहिए। उन्होंनें कविता के सम्प्रेषण के लिए विभिन्न फेसबुक और ट्विट्टर जैसे माध्यमों को समझने की आवश्यकता पर भी बल दिया

सुनिए ऑडियो में कार्यक्रम के कुछ अंश


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