अगर साज़ छेड़ा तराने बनेगें,
तराने बनेगें...तराने बनेगें...तराने बनें तो..
तराने बनें तो फ़साने बनेगें....
जी हाँ कुछ ऐसा ही है हिंदी फिल्मों का किस्सा भी. यहाँ बिना तरानों के
कोई भी फ़साना पूरा नहीं होता. नायक नायिका को छेड़ना चाहे तो गा उठता है, ओ लाल
दुप्पट्टे वाली तेरा नाम तो बता....अगर नायिका के रूप श्रृंगार की तारीफ़ करना
चाहे तो धीमे स्वरों में गुनगुना उठेगा चौदहवीं का चाँद हो या आफताब हो,
नायिका का विवाह किसी और से हो रहा है तो वहाँ उस मुबारक मौके पर नायक का आना और गाना
आवश्यक हो जाता है, कभी उसके जुबाँ से बद्दुआ निकलती है तो कभी महानता का परिचय
देकर वो दुआओं की बरसात करता हैं मगर नशे की हालात में भी मजाल है कि उसका कोई एक
सुर भी इधर से उधर हो जाए. अब यहाँ नायक का गायक होना कतई जरूरी नहीं है, वो गाँव
का एक साधारण तांगे वाला हो सकता है (दिलीप कुमार फिल्म नया दौर में), कोई
मल्लाह (सुनील दत्त मिलन में), स्कूल का अध्यापक (विनोद खन्ना फिल्म इम्तेहान
में) या फिर कोई कार मेकेनिक (राजेश खन्ना फिल्म अवतार में) भी, पर उसका सधे
हुए गले से यूहीं अचानक गा उठना, थियेटर के परदे पर आँखें गडाये बैठे दर्शकों को कभी
नहीं खटकता. सीधी साधी घरेलु नायिका हो या किसी डांस क्लब में थिरकती वैम्प, या
फिर कोई भटकती आत्मा ही क्यों न हो, आवाज़ में यहाँ भी वही सुरीली नशीली कशिश. गाना
शुरू होता है तो नायक नायिका को सहयोग देने और साथ में नाचने के लिए भी एक समूह
जाने कहाँ से आ धमकता है, और ये भी हमें कभी नहीं खलता. कभी कोई ये सवाल नहीं
पूछता कि जब नायक और नायिका अपने व्यक्तिगत जज्बों का बयाँ कर रहे हैं तो आखिर ये
थिरकती बालाएं क्यों आकर उनके प्रेम में खलल डाल रहीं हैं, क्या ये सब तैयार बैठी
होती हैं कि कब नायक नायिका गाना शुरू करें और कब उन्हें कदम थिरकाने का अवसर मिले
? नहीं, हम ये सब कभी नहीं पूछते. दोस्तों यही तो जादू है फिल्म संगीत का, कि सब
कुछ इतना अव्यवहारिक होने पर भी हमें कुछ अजीब नहीं लगता बल्कि कभी कभी तो हम सिर्फ
इन गीतों को परदे पर देखने के लिए ही पूरी फिल्म को बर्दाश्त कर लेते हैं. फिल्म
संगीत का ये खुमार ८२ साल पहले बनी, पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ से सिने प्रेमियों के सर चढा था और आज आठ दशकों के बाद भी इसका सुरूर
हमें उतना ही लुभा रहा है.
सारे सवाल, सारे तर्क एक तरफ रख दीजिए क्योंकि सच्चाई यही है कि भारतीय
फ़िल्में बिना गीत संगीत के अधूरी थी, अधूरी हैं और अधूरी रहेंगीं. दुनिया की तमाम
भाषाओं में जो फ़िल्में बनती है उनमें संगीत सिर्फ पार्श्व में रहकर परदे पर चल रहे
दृश्य के भाव को सूक्ष्मता देने का काम करता है, पर हमारी भारतीय फिल्मों में संगीत
का महत्त्व बहुत व्यापक है, यहाँ तो हम गीत संगीत को फिल्म की जान तक कह सकते है. पार्श्व
संगीत के अलावा फिल्म के गानों का भी जिम्मा एक या एक से अधिक संगीतकार उठाते हैं.
फिल्म का निर्देशक, लेखक या लेखकों की टीम के साथ मिलकर कहानी की पठकथा में गीतों
की सिचुएशन (जरुरत) पैदा करते हैं. फिर गीतकार और संगीतकार मिलकर इन सिचुएशनों पर
गीत तैयार करते हैं, जिन्हें पार्श्व गायक अपने सुरीले स्वरों से संवारते हैं.
फिल्म के प्रदर्शन से पहले ही ये गीत दर्शकों के सामने परोसे जाते हैं, दरअसल ये
गीत ही फिल्म के प्रचार के अहम घटक होते हैं. गीत अगर कामियाब हो जायें तो फिल्म
की आधी सफलता सुनिश्चित मान ली जाती है (हालाँकि ऐसा हो जाए ये जरूरी नहीं है).
यहाँ बात सिर्फ हिंदी सिनेमा की नहीं वरन ये चलन तमाम भारतीय भाषाओं में एक सामान
दिखाई देता है, जिससे एक बात तो साफ़ जाहिर हो जाती है कि अनेकों अनेक विविधताओं के
बावजूद फिल्मों में, फ़िल्मी गीतों की जरुरत को लेकर देश भर के सिनेमाकार एकमत हैं.
और क्यों न हो, आखिर हम भारतियों का जीवन भी तो हर पड़ाव पर संगीत से जुड़ा है,
जन्म, मरण, या विवाह हो, प्रेम हो या विरह, हर मौके के लिए गीत हैं हमारे पास. ऐसे
में बिन गीतों के कैसे अपनी कल्पना को सिनेमा का सांचा दे, इस मिटटी से जुड़े
फिल्मकार.
अमूमन हर भारतीय फिल्मों में औसतन ६ से १० गीत तक होते हैं, कुछ में अधिक
तो कुछ में कम. आम तौर पर ये गीत फिल्म की कहानी का ही हिस्सा होते हैं, पर कभी
कभी इन्हें माहौल को हल्का फुल्का बनाने या कहें ‘राहत’
देने के लिए भी डाला जाता रहा हैं, जिसके खत्म होने पर कहानी वापस अपने ढर्रे पर आ
जाती है. नब्बे प्रतिशत गीत नायक या नायिका पर फिल्माए जाते हैं. कुछ चरित्र
अभिनेताओं पर, तो कुछ हास्य अभिनेताओं पर, कुछ खलनायक के इर्द गिर्द घूमती उसकी
खास खलनायिकाओं पर भी केंदित होते हैं. एक
ज़माने में अभिनेत्री हेलेन को इस काम में महारथ हासिल थी, आज के दौर में इन गीतों
को ‘आईटम’ गीत कहा जाता है और इसे किसी खास देसी विदेशी मॉडल या
अभिनेत्री पर फिल्माया जाता है जिसका जमकर प्रचार किया जाता है. आजकल इन आईटम
गीतों की सफलता पर भी पूरी फिल्म का भविष्य दाँव पर लगा रहता है. फिल्म की एल्बम (एक
फिल्म के सभी गीतों का संकलन) को फिल्म के मूड और कलेवर के हिसाब से तैयार किया
जाता है.
विदेशों में ऐसी फ़िल्में जिनमें किरदार बात करते करते गाने लगे उन्हें ‘म्यूजिकल’ कहा जाता है (उदाहरण -साउंड ऑफ म्युज़िक, द डर्टी
डांसिंग आदि), उस हिसाब से तो लगभग हर भारतीय फिल्म म्यूजिकल ही कही जायेगी. शुरू
के दौर में अभिनेता ही खुद अपने गीत गाते थे, कुंदन लाल सहगल, सुरैय्या, के सी डे,
आदि आरंभिक दौर के गायक सितारे हुए करते थे, १९३५ में फिल्म धूप छांव से
प्लेबैक गायन का चलन आरंभ हुआ, जो आज भी बदस्तूर जारी है. हालाँकि इनमें से कुछ
गीत फिल्म के पार्श्व में किरदार के मन के भावों को अभिव्यक्त करने वाले होते हैं
पर अधिकतर गीत हमारी फिल्मों में ऐसे ही हैं जिन्हें फिल्म के कलाकार खुद ही परदे
पर गाते हुए या कहें कि पार्श्व गायक के स्वर तरंगों से, अपने लबों की जुम्बिश को
जोड़ते नज़र आते हैं. फिल्म के किरदार, कहानी और व्यावसायिक सोच के आधार पर ये तय
होता है कि फिल्म के गीत किस प्रकार के होंगें
.
यदि फिल्म का नायक कवि या लेखक है तो गीतों में भी कुछ साहित्यिक गहराई मिलेगी,
जैसे फिल्म प्यासा में गुरुदत्त के और फिल्म कभी कभी में अमिताभ
बच्चन पर फिल्माए गीत (ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है..., जाने वो कैसे
लोग थे..., जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ है..., मैं पल दो पल का शायर हूँ....आदि),
फिल्म के प्रमुख किरदारों में से कोई अगर गायक या किसी रोक्क् समूह से जुड़ा हुआ
किरदार हो तो फिल्म काफी हद तक संगीतमय हो जाती है, ऐसी फिल्मों से अच्छे संगीत की
उम्मीद लाजमी ही है जैसे फिल्म क़र्ज़ में ऋषि कपूर, अभिमान में अमिताभ
और जया बच्चन और ताजा उदाहरणों में रोक्क् ऑन के फरहान अख्तर या रोक्क्
स्टार के रणबीर कपूर का किरदार. नृत्य
कला से जुड़े नायक नायिका पर केंद्रित फिल्मों में ये भी देखना आवश्यक है कि वो किस
प्रकार के नृत्य से जुड़े है, सुधा चंद्रन नाचे मयूरी में एक भारतीय
नृत्यांगना बनी थी तो मिथुन चक्रवर्ती डिस्को डांसर में फिल्म के शीर्षक
अनुरूप डिस्को डांसर ही बने हैं, जाहिर इन दोनों फिल्मों के संगीत में भी ज़मीन
आसमान का फर्क दिखेगा. अमूमन प्रेम कहानियों का संगीत मधुर, सुरीला और ताजगी से
भरपूर रहा करता है, बानगी देखें -मुझे कुछ कहना है (बोब्बी), देखो मैंने देखा
है ये एक सपना (लव स्टोरी), हम बने तुम बने, सोलह बरस की बाली उमर को सलाम (एक
दूजे के लिए), ए मेरे हमसफ़र (क़यामत से क़यामत तक) आदि. कुछ गीत नायक या नायिका
का परिचय बताते हैं जैसे मैं जहाँ चला जाऊं (बनफूल), मेरा नाम है चमेली (रजा और
रंक), मैं राही अनजान राहों का (अनजाना), मेरा नाम है शबनम (कटी पतंग) आदि, तो
कुछ गीत नायक और नायिका के पेशे से जुड़े होते हैं जैसे राहों में रहते हैं, मैं
निकला गड्डी लेके (ट्रक चालक), सर जो तेरा चकराए (चम्पी वाला), आहें न भर ठंडी
ठंडी (चाय वाली), मर्द तांगेवाला (तांगेवाला), सारी दुनिया का बोझ (कुली) आदि.
फिल्म होर्रर हो तो गीत भी हौन्टिंग हो जाते हैं जैसे झूम झूम ढलती रात, नैना
बरसे रिमझिम रिमझिम, गुमनाम है कोई आदि. कुछ गीत हंसा हंसा कर लोटपोट करने
वाले होते हैं, किशोर कुमार, महमूद, भगवान दादा, आई एस जौहर, असरानी, जॉनी वाकर
जैसे अभिनेताओं का ख्याल आते ही जेहन को गुदगुदा जाते हैं ऐसे गीत – पांच रूपया बारह आना, एक चतुर नार बड़ी
होशियार, हम थे वो थी और समां रंगीन, आना मेरी जान मेरी जान, भोली सूरत दिल के
खोटे...बिरही गीतों की भी भरमार रही है हमारी फिल्मों में -चांदी की दीवार
न तोड़ी, हम छोड़ चले हैं महफ़िल को, वफ़ा जिनसे की बेवफा हो गए, न आदमी का कोई भरोसा,
तेरी याद दिल से जैसे ढेरों दर्द भरे गीत आज भी हमें रुलाने की कुव्वत रखते
हैं. इसके अलावा मुजरे (चलते चलते यूहीं कोई मिल गया था, इन आँखों की मस्ती के,
हुज़ूर आते आते बहुत देर कर दी), कव्वालियां (ये इश्क इश्क है, तेरी महफ़िल
में किस्मत आजमाकर, अल्लाह ये अदा, तुमसे मिलके दिल का), बच्चों के गीत (नानी
तेरी मोरनी को, मास्टरजी की आ गयी चिट्टी, लकड़ी की काठी, इचक दाना), ग़ज़ल (तुमको
देखा तो ये ख़याल आये, सीने में जलन, जिन्दा हूँ इस तरह, यूँ हसरतों के दाग), लोरियाँ
(आजा री निंदिया आ, सुरमई अखियों में, चांदनिया), देशभक्ति गीत (मेरे
देश की धरती, ये देश है वीर जवानों का, हर करम अपना करेंगें), नायिका की तारीफ
करते गीत (चन्दन सा बदन, बड़ी मस्तानी है मेरी महबूबा, अब क्या मिसाल दूं),
कैबरे गीत (आओ हुज़ूर तुमको, ये है रेशमी जुल्फों का अँधेरा, हुस्न के लाखों रंग),
मिटटी से जुड़े लोक अंदाज़ के गीत (पान खाए सैयां हमारे, चढ गयो पापी बिछुआ,
झुमका गिरा रे, मुन्नी बदनाम हुई), भजन (न मैं धन चाहूँ, सुख के सब साथी,
अल्लाह तेरो नाम, ओ पालनहारे), प्रेरणा से भरे गीत (रुक जाना नहीं, गाडी
बुला रही है, बावरा मन देखने चला एक सपना) या फिर कुछ दार्शनिक रंग में
रंगे गीत (ताल मिले नदी के जल में, सजन रे झूठ मत बोलो, तुझको चलना होगा आदि)
भी हमारी फिल्मों का हिस्सा रहे हैं.
फ़िल्मी गीतों की कामियाबी में उनके फिल्मांकन का भी बड़ा हाथ रहा है, दशक
दर दशक फिल्मांकन के नए नए प्रयोगों ने इस गीतों के प्रति दर्शकों की दिलचस्पी
कायम रखी है. ५० और ६० के दशक को संगीत के लिहाज से भारतीय सिनेमा का स्वर्णिम युग
कहा जाता है. इस दौर ने सिनेमा को बिमल रॉय, गुरुदत्त, व्ही शांताराम, महबूब खान,
राज कपूर, जैसे महान फिल्मकार दिये. इसी दौर में सी रामचंद्र, शंकर जयकिशन, एस डी
बर्मन, नौशाद, ओ पी नैय्यर, मदन मोहन, हेमंत कुमार, रवि जैसे संगीतकार हुए और
शैलेन्द्र, साहिर, हसरत, शकील जैसे जबरदस्त गीतकारों ने इस स्वर्णिम युग के सबसे
यादगार गीतों को रचा. बेशक इन महान फिल्मकारों की भी प्रेरणा होलीवुड के सफलतम
फिल्मकार रहे पर इनमें से किसी ने भी भारतीय जनमानस की कहानियों को परदे पर साकार
करते हुए कभी भी गीत संगीत से परहेज नहीं रखा, बल्कि अपनी फिल्मों में उन्हें इतनी
खूबसूरती से पिरोया कि विदेशी फिल्मकार भी चकित रह गए. हाँ अंदाज़ सबका जुदा और
अनूठा रहा. गुरुदत्त की फिल्मों के अधिकतर गीत सीधे गायक की आवाज़ से उठा करते थे
यानी उनमें प्रिल्यूड (गीत के आरंभिक संगीत स्वर) का इस्तेमाल न्यूनतम होता था,
कारण साफ़ था, गुरु संवादों को गीतों में रूपांतरित करते हुए स्वाभाविकता को बरकरार
रखना चाहते थे. वो गीतों के उत्कृष्ट फिल्मांकन के लिए भी जाने जाते थे. फिल्म ‘कागज़ के फूल’ का गीत वक्त ने किया क्या हसीं सितम को अपने लाजवाब
लाईटिंग और अनूठे कैमरा कोणों के लिए आज भी याद किया जाता है. दूसरी तरफ राज कपूर,
फिल्म के गीतों को बेहद मुक्तलिफ़ रंगों से सजाने में विश्वास रखते थे. फिल्म ‘आवारा’ का घर आया मेरा परदेसी गीत को ही लें. इस एक गीत में ही पूरी फिल्म
का खाका है, जिसे निर्देशक ने बेहद कलात्मक ढंग से उभरा है. इसी फिल्म के दम भर
जो उधर मुँह फेरे में नायक नायिका का अंतरद्वंद देखते ही बनता है. फिल्म ‘श्री ४२०’ के प्यार हुआ इकरार हुआ को आज भी हर प्रेमी
दिल बरबस ही गुनगुना उठता है.
महबूब खान की मास्टरपीस ‘मदर
इंडिया’ में अपने पति को खोकर,
तमाम दुःख उठाकर बच्चों का पालन पोषण करती नायिका जब हल कांधे पर उठाकर गाती है कि
दुनिया में हम आये हैं जीना ही पड़ेगा तो पत्थर से पत्थर दिल भी पसीज कर रह
जाता होगा. वहीँ जब शहंशाह अकबर के दरबार में कनीज अनारकली खुलकर ऐलान करती है कि प्यार
किया कोई चोरी नहीं की तो सामने बैठे दर्शक भी अपने मन में कहीं एक अजीब से आत्मविश्वास
का संचार अनुभव करते होंगें. बिमल रॉय की अनमोल कृति ‘बंदनी’
का अंत एक ऐसे गीत से होता है जहाँ नायिका के मन के भाव दर्शकों की आँखों से छलक
पड़ते हैं जब बर्मन दा के स्वर गूंजते हैं कि मुझे आज की विदा का मर के भी रहता
इंतज़ार. यही कमाल बिमल दा, फिल्म ‘सीमा’ में भी करते हैं
जहाँ गायक थे मुकेश और गीत था- ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना. ऐसा नहीं
है कि केवल प्रमुख धारा की फिल्मों में गीत संगीत को जगह मिली हो, ‘दो बीघा जमीन’ को हम एक बॉलीवुड मसाला फिल्म नहीं कह सकते, मगर यहाँ
भी बिमल दा ने गीतों की जगह बनायीं मौसम बीता जाए गीत को और उसके फिल्मांकन
को भला कोई कैसे भूल सकता है. राज कपूर की ‘जागते रहो’ और ‘बूट पोलिश’ जैसी सामानांतर फिल्मों में भी फिल्म के
चरित्र अनुरूप गीत रखे गए.
यही दौर था जब इंडस्ट्री में रफ़ी साहब, किशोर कुमार, मुकेश, लता मंगेशकर, मन्ना
डे, तलत महमूद, आशा भोसले जैसे गायकों ने पार्श्वगायन को अद्भुत ऊंचाईयां दी. गीत
संगीत फिल्मों में इतना अहम स्थान रखते थे कि उस दौर के सभी बड़े सितारे अपनी आवाज़
और अदायगी को सर्वश्रेष्ठ रूप से निभाने वाले गायकों से ही अपने गीत गवाते थे.
मुकेश की आवाज़ को राज कपूर अपनी आत्मा कहते थे तो रफ़ी साहब की आवाज़ में दिलीप
कुमार की अदायगी कुछ और निखर कर सामने आती थी. किशोर कुमार देव आनंद के अंदाज़ को
स्वरों में संवारने में सबसे सटीक साबित हुए, बाद में वो राजेश खन्ना और अमिताभ
बच्चन जैसे सुपर स्टारों की भी आवाज़ बने. जहाँ नायिकाओं के लिए लता मंगेशकर
पार्श्वगायन करती रही वहीँ अधिकतर सह अभिनेत्रियों और वैम्पों के गीत आशा के
हिस्से में आये. मन्ना डे की बेस भरी आवाज़ नायकों पर अधिक नहीं जमती थी तो उनके हिस्से
चरित्र अभिनेताओं और हास्य अभिनेताओं के गीत आये. हालाँकि कुछ अभिनेताओं ने भी यदा
कदा गायिकी में सुर आजमाए पर ये मूलतः एक विविधता उत्पन्न करने के लिए किया गया
प्रयोग भर ही रहा. हाँ मगर गौर तलब है कि जब भी किसी बड़े सितारे ने फिल्मों में पार्श्वगायन
किया, उस गीत विशेष को आपार लोकप्रियता भी नसीब हुई.
७० का दशक नई ऊर्जा का रहा, जहाँ लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, आर डी बर्मन
(पंचम), और कल्याणजी आनंदजी की जोडियाँ शीर्ष पर रहीं. गीतकारों में आनंद बक्शी और
मजरूह सुल्तानपुरी का सिक्का जम कर चला. कुछ दृश्य कभी भूले नहीं जा सकते. हूगली
नदी पर, हावरा ब्रिज के ठीक नीचे एक कश्ती में अपना दर्द एक तवायफ को सुनता नायक
कहता है या कहें कि गाता है कि गैरों का दोष नहीं है ये किस्सा है अपनों का (अमर
प्रेम), एक सर्द तूफानी रात में गर्म अलाव के करीब पिघलते दो जिस्म थरथराते
होंठों से गुनगुनाते हैं कि भूल कोई हमसे न हो जाए (आराधना), भिखारियों के
भेष में नायक को ढूंढते उसके साथी खुली सड़क पर गाते हुए चलते है कि सुबह से हो
गयी शाम तुझको अल्लाह रखे (आँखें), पति और पहले प्यार के बीच उलझी नायिका गाते
हुए कराह उठती है कि हम यादों के फूल चढाये और आंसू के दीप जलाये (दिल एक
मंदिर), अपने मूक बधिर बेटे के इलाज के लिए पैसे जुटाने को सघर्ष करता एक पिता खुद
को हौंसला देने के लिए गा उठता है जो जीवन से हार मानता उसकी हो गयी छुट्टी (शोर),
नायिका या कहें प्रेतात्मा, अपने प्रेमी का सानिध्य पाकर उससे गुहार करती है इस
अलाप के साथ कि लग जा गले कि फिर ये हसीं रात हो न हो (वो कौन थी), और जाने
ऐसे कितने कितने गीत भुलाए नहीं भूलते. इस दौर में मनोज कुमार, जे ओमप्रकाश, शक्ति
सामंता और हृषिकेश मुखर्जी जैसे निर्देशकों ने अपने अपने निराले अंदाज़ में इन
गीतों को अंजाम दिया.
इस दशक तक आते आते मगर फिल्म की एल्बम को अधिक व्यावसायिक तरीके से रचा
जाने लगा था, उदाहरण के लिए अगर हम ‘मदर इंडिया’ को देखें तो
उसमें हर गीत फिल्म की मूल कहानी की ही दिशा में बहता नज़र आता है, वहीँ अगर हम ७०
के दशक की सफलतम फिल्म ‘शोले’ के संगीत एल्बम पर गौर करें तो पायेंगें कि
यहाँ गीत फिल्म की मूल कहानी से जुड़े सहयोगी धाराओं को उजागर करने वाले हैं, जैसे ‘शोले’ में कुल ५ गीत थे, फिल्म में दो दोस्तों की दोस्ती कहानी का एक बड़ा
आकर्षण था, तो इस दोस्ती को समर्पित एक गीत रखा गया, फिल्म का सबसे बड़ा आकर्षण
फिल्म का खलनायक डाकू गब्बर सिंह का किरदार था तो उसके अड्डे के तिलस्म को उजागर
करता हेलेन के तडके वाला एक गीत भी रखा गया. गाँव की पृष्ठभूमि को एक होली गीत के
माध्यम से उजागर किया गया, तो नायक –नायिका के बीच की प्यार भरी नोंक झोंक को एक हलके फुल्के प्रेम गीत से
संवारा गया. अंत में एक गीत नायिका के नृत्य कौशल को कैद करने के उद्देश्य से भी
रखा गया. तो यहाँ एल्बम की योजना भी फिल्म की ही तरह काफी सोच विचार कर बनायीं
जाने लगी थी.
८० के दशक में मार धाड़ वाली फिल्मों में संगीत पक्ष फीका पड़ने लगा, ये वो
दौर था जब गैर फ़िल्मी संगीत जैसे पॉप और ग़ज़ल के एलबम्स तेज़ी से लोकप्रिय होते जा
रहे थे. सामानांतर सिनेमा का एक नया चलन आया, जहाँ वास्तविक्ता को अधिक महत्त्व
दिया जाने लगा. जाहिर है इन फिल्मों में गीत संगीत की कोई गुंजाईश नहीं होती थी.
कुछ समय के लिए लगा कि हिंदी फिल्मों से गीत संगीत का रिश्ता अब टूट जायेगा. पर
ऐसा नहीं हुआ, नब्बे के दशक में फिल्म संगीत एक बार फिर नए साज़ साजिंदों के साथ
लौट आया. पर इस वापसी में बहुत कुछ बदल चुका था. जहाँ ए आर रहमान, नदीम श्रवण,
जतिन ललित जैसे युवा संगीतकारों ने संगीत रचने का तरीका ही बदल दिया वहीँ मणि
रत्नम, सुभाष घई, यश चोपड़ा, आदित्य चोपड़ा, करण जौहर, राकेश रोशन, राम गोपाल वर्मा,
संजय लीला बंसाली और महेश भट्ट जैसे फिल्मकारों गीतों के फिल्माकन को एक अलग ही
रूप दे डाला. जहाँ पहले नायक नायिका एक स्थान पर खड़े खड़े पूरा का पूरा गीत गा जाते
थे, वहीँ अब गीतों का फिल्मांकन एक बेहद खर्चीला सौदा हो चला था. एक ही गीत में एक
से अधिक लोकेशन, साज़ सज्जा और वेश भूषा में ढेरों बदलाव और नृत्य निर्देशक की
उपस्तिथि ने गीतों के फिल्मांकन को कल्पनाओं का एक नया आकाश दे डाला था. आखिर जब
गीत संगीत पर इतना सब निर्भर हो तो फिर उनके फिल्मांकन में कंजूसी क्यों हो भला...
वास्तव में देखा जाए तो फ़िल्मी गीत संगीत का दायरा सिर्फ फिल्मों तक ही
सीमित नहीं है. पीछे मुड़कर देखें तो जाने ऐसी कितनी फ़िल्में होंगीं जिन्हें आज की
पीढ़ी केवल उनके अच्छे संगीत के लिए याद करती है. कितने गीत आज भी हमारे प्रिय
होंगें पर हम उनकी फिल्मों के नाम भूल चुके होंगें. फिल्म लाख असफल और भुला देने
लायक सही पर एक दो यादगार गीत आज भी उन फिल्मों को जिन्दा रखे हुए है. देखा जाए तो
इन गीतों से जुडी हम सब की भी कितनी यादें हैं. हम अपने बचपन में सुने गीतों के
प्रति अक्सर बेहद भावुक होते हैं, जवानी के दिनों में सबसे अधिक हमें रुमानियत से
भरे गीत भाते हैं, आज चाहे कोई उन्हें कम अच्छा भी समझे तो क्या, कच्ची उम्र में
जो गीत हमारे दिल से टकराए होंगे वो हमेशा ही हमें प्यारे रहेंगें. सच तो यही है
कि हमारी यादों को जेहन के सही फोल्डर या कोष्ठ में सुरक्षित रखने में ये फ़िल्मी
गीत हमेशा ही कारगर रहे हैं. यकीं न हो तो आप भी अपनी यादों को जरा टटोलिए, देखिये
कितने गीत एक के बाद एक उन यादों को एक मुक्कमल तस्वीर में बदल देंगें.
फ़िल्मी गीतों ने न सिर्फ फिल्मों को व्यावसायिक सफलता दिलाने में सहयोग
किया है, बल्कि इन गीतों ने ढेरों फनकारों को रातों रात लोकप्रियता के शिखर पर भी
बिठाया है. आज के दौर में समय की गति
बहुत तेज कदम है तो अगर फ़िल्म संगीत भी नए रंग ढंग में तेज़ी से बदल रहा है तो भला
हैरत क्यों. इस नई सदी में हम, सब तरह के बदलावों के लिए खुल चुके हैं, जहाँ कोई ‘लगान’ जैसी फिल्म है जिसमें गीत संगीत की रूप रेखा क्लास्सिक हिंदी फिल्मों
जैसा है तो ‘खोंसला का घोसला’ जैसी फिल्म भी हैं जहाँ गीत संगीत की गुंजाईश
न के बराबर होने के बावजूद गीत रखे जाते हैं ताकि फिल्म को अच्छे से प्रचारित किया
जा सके. मेलोडी की जगह रोक्क्, सूफी, और फ्यूज़न संगीत ने ले ली है, कल्ब मिक्स और
महफ़िल मिक्स जैसे नए तकनीकी शब्द संगीत की शब्दावली में जुड चुके हैं. संगीत
डिजिटल हो चला है, विश्व व्यापी हो चुका है, पर आज भी कहीं कहीं पारंपरिक राग माला
या लोक गीतों की झलक हमारे गीतों में नज़र आ ही जाती है, ‘रेट्रो’
शब्द के परदे में हम कभी कभी अपने खोये अतीत को भी ढूँढने निकल पड़ते हैं. आज लगभग
हर किस्म की फिल्म बन रही है और ढेरों नए फनकारों को जम कर मौका भी दिया जा रहा
है. आज फिल्म संगीत का दबदबा इतना अधिक है कि गैर फ़िल्मी संगीत या तो खो सा गया है
या फिर जो है वो भी प्रमुखधारा के फिल्म संगीत में घुल मिल गया है. खैर बदलाव तो
आते रहें हैं और आते रहेंगें पर जब तक फिल्मों के प्रति हमारी दीवानगी रहेगी, फिल्म
संगीत की लोकप्रियता शायद कभी कम नहीं होगी. फ़िल्मी गीतों ने हमारे मन के सभी
भावों को शब्द दिये हैं, मस्त होके किसी धुन को गुनगुनाने की वजहें दी है. वो
आवाजें दी है, जिनसे हमारी रातें रोशन हुई हैं, वो नज़ारे दिये हैं जिनसे हमारी
यादें आज भी महकती हैं. श्रोताओं का ये बेइंतेहा प्यार, रचनाकारों को कुछ नया करने
का जनून देगा और ये जूनून रह रह कर हमारे रचनाकारों को झकझोरेगा और कहेगा कि जो
गीत नहीं जन्मा वो गीत बनायेगें...और ये सुरीला सिलसिला यूहीं चलता रहेगा.
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