समय के कदमों की चाप,
मेरे कानों ने भी सुनी,
इसीलिए मैंने भी खुद को
बदलने की ठानी,
अपने चोले बेढंगे लगे,
और आधुनिक लिबास,
समय की माँग,
अपनी सभ्यता लगी मैली कुचली,
प्रदूषित गंगा जैसी,
उसमें जीवन था बोझ से,
अपने संस्कार पुराने और तंग लगे,
उनको अपनाता कैसे मैं,
अपना भाषा अगर बोलता,
क्या पढ़ा लिखा कहलाता मैं,
लादे हुए विचार,
और मांगी हुई आदतें लेकर,
कैसे राष्ट्र गीत गाता मैं,
दिन रात तिल तिल कर,
स्वयं को मिटाता मैं,
समय के सांचे में ढल गया हूँ,
हाँ मैं भी,
समय के हाथों छल गया हूँ
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें