एक सवाल "क्यों",
बहुत परेशान करता है,
जेहन की दीवारों से जब भी टकराता है,
तूफ़ान उठा जाता है,
एक सवाल "क्यों",
जो इम्तेहानों में नहीं पूछा जाता...
जब इंसान की मजबूरियां,
बेबसी के पत्थरों पे सर पटकती है,
जब इंसानियत को सरे आम,
ताकों के भाव बेचा जाता है,
जब पूरे दिन पीसने के बाद मजदूर,
सूखी रोटी और नमक खाता है...
जब एक सच को कई,
नकाबपोश झूठ,
मिलकर कुचलते हों,
जब फूलों के अरमानों को,
खुद माली,
पैरों से मसलते हों,
जब बेगुनाह अन्याय के फंदों में,
और गुनाहगार,
फूलों से नवाजे जाते हैं,
तब सवाल उठता है "क्यों",
यह सवाल "क्यों",
बहुत परेशान करता है
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें