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17.2.12

सिगरेट

तलब से बेकल लबों पर,
मैं रखता था - सिगरेट,
और सुलगा लेता था चिंगारी,
खींचता था जब दम अंदर,
तो तिलमिला उठते थे फेफडे,
और फुंकता था कलेजा,
मगर जब धकेलता था बाहर,
निकोटिन का धुवाँ,
तो ढीली पड़ जाती थी,
जेहन की उलझी, कसी नसें, कुछ पल को,
धुवें के छल्ले जैसे,
कुछ दर्द भी बाँध ले जाते थे, साथ अपने,
हर कश के साथ मैं पीता था आग, और जला देता था,
जिंदगी के दूसरे सिरे से कुछ पल,
और निकाल लेता था अपना बदला - जिंदगी से,
एश ट्रे में मसलता था सिगरेट के "बट" को ऐसे,
जैसे किसी गम का सर कुचलता था,
अजीब सा सकून मिलता था .

मगर उस दिन जब...

एश ट्रे से उठते धुवें को
ध्यान से देख रही थी - गुड़िया मेरी,
उसकी हैरान आँखों में, घूम गया था समय जैसे -
...कॉलेज.... दफ्तर.... यार दोस्त...खोखे वाले...कॉफी होम...
...और उँगलियों के बीच दबी सिगरेट....
...भरी हुई एश ट्रे.... खांसता पिता...
...अस्पताल... ऑपरेशन थिएटर .... मैं ही तो हूँ अन्दर...
...और बिटिया बाहर... चिंतित .... परेशान...
मेरी गुड़िया.... कितनी मासूम और प्यारी है...
है ये भी तो एक सुख, जो जिम्मेदारी है,
जिंदगी....
इतनी बुरी भी नही है शायद ...
फैंक आया हूँ यही सोच कर अब -
भरी हुई एश ट्रे, डस्ट बिन में,
शुक्रिया सिगरेट, तेरह सालों के साथ का,
पर अब समय है विदा कहने का,
धुवें के लंबे कश अब और नही,
अलविदा.... सिगरेट ....अलविदा...

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