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17.2.12

आम चुनावों में आम आदमी - "विकल्पहीन"

चुनाव आयोग में सभी प्रतिभागी उम्मीदवार जमा हैं,
आयु सीमा निर्धारित है
तभी तो कुछ सठियाये धुरंधर
दांत पीस रहे हैं बाहर खड़े,
प्रत्यक्ष न सही परोक्ष ही सही,
भेजे है अपने नाती रिश्तेदार अन्दर,
जो आयुक्त को समझा रहे हैं या धमका रहे हैं,
"जानता है मेरा....कौन है" की तर्ज पर...
बाप, चाचा, ताया, मामा, जीजा आप खुद जोड़ लें...

पर अफ़सोस कि उनमें से भी अमूमन,
पाए नहीं आयोग ने उम्मीदवारी के काबिल,
कोई क्रिमिनल केस में फंसा है,
तो कोई नहीं है दसवीं भी पास शेर दिल,
अब आयुक्त को कौन समझाए,
पढाई लिखाई का यहाँ क्या काम भाई,
देश ही तो चलाना है,
कौन सा जमा घटा कराना है...
और फिर रामदीन किसान भी तो अगूंठाछाप है,
और अपंग बिस्मिल ने तो कभी स्कूल का दरवाज़ा भी नहीं देखा,
पर उम्मेदवारी दे दी, कि सच्चे दिल से लोगों में काम किया है,
ये तो नाइंसाफी हुई,
चीख चीख कर बाहर खड़े नेता जनता को भड़का रहे थे,
पर ये क्या, जनता है कि भड़क ही नहीं रही,
न ही नारे लग रहे हैं जयजयकार के...
आखिर ये हो क्या गया है...

आयोग की परीक्षा में सफल उम्मीदवारों को देश की,
तमाम तकलीफों की जिन्दा तस्वीरें दिखलाई गयी,
जम कर बहस हुई, और विचारधारा की समानता के आधार पर
दो खेमों में बाँट दिया गया,
हर खेमे ने चुना अपना एक नेतृत्व,
अब बारी जनता की थी,
मैंने भी अपना वोट दिया,
और पहली बार महसूस किया कि -
लोकतंत्र में मेरा भी कोई स्थान है,
कोई भी खेमा जीते, सत्ता पक्ष या विपक्ष,
मुद्दा तो विकास ही रहेगा,
जात, धर्म, भाषा के नाम पर बंटवारा अब और नहीं...

तभी किसी ने नींद से जगाया,
कहीं सपना तो नहीं था जो अब तक देखा,
सपना ही होगा.....आज वोटिंग की तारीख है,
जिसे मेरा वोट नहीं उसे मैं सत्ता से दूर रखना चाहता हूँ,
जिसे वोट दे रहा हूँ, उससे भी कुछ उम्मीदें नहीं,
पर विकल्प क्या है....????
फिर एक बार मन को तसल्ली दूंगा,
आखिर वोट न देकर भी मैं क्या उखाड़ लूँगा...

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