गाँव के स्कूल की वो पुरानी सी इमारत,
बेरंग दीवारें,
बड़े से अहाते में,
खोह खोह खेलती लड़कियां,
और लड़के मैदान में लड़ते,
जहाँ पढाते थे एक मास्टरजी,
जिनके हाथ में होती थी,
एक बड़ी सी छड़,
एक दरबान, जो साँस लेना भूल सकता था,
मगर घंटा बजाने में कभी चूक नही करता था,
वापसी में हम खेतों से होकर जाते थे,
जहाँ पानी भरा रहता था,
कीचड़ से सने पाँव लेकर,
कच्ची पगडंडियों से गुजरते थे,
उन कदमों के निशां,
अभी मिटे नही हैं....
13 टिप्पणियां:
और ना ही ये निशां कभी मिट सकते है।
बहुत सुंदर ।
सजीव जी
आप की रचना ने एक दम से ४५ साल पीछे भेज दिया मुझे. एक एक शब्द सच बयां करता है...वाह.
नीरज
उन कदमों के निशां,
अभी मिटे नही हैं....
बेहद कोमल, संवेदित करने में सक्षम।
***राजीव रंजन प्रसाद
वो मिट भी नहीं सकते.. न संस्कारों से, न दिमाग से, न उन राहों से...
लगा जैसे आप हमारे वाले स्कूल से ही पढ़े हैं. बहुत बढ़िया.
गाँव का स्कूल तो नही था पर मास्टर जी ओर बेंत ऐसी ही थी.......बहुत बढ़िया....
पहली रचना याद दिलाती है कि
प्रकृति से हमारा सरोकार
क्षीण होता जा रहा है.
और दूसरी तो अपने वज़ूद को लेकर
सचेत कर रही पुकार ही है.
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बधाई...इनकी प्रस्तुति के लिए.
उदय जी तो स्वयं लीजेंड हैं.
डा.चंद्रकुमार जैन
लगा जैसे वो निशां कदमों के
आज क़दम-ताल करते ख़ुद चले आए हैं
खामोशी के पार, बचपन की यादों की
अनुगूंज लेकर.....कुछ खो-सा गया.
पढ़कर भावुक हो उठा....!
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धन्यवाद
डा.चंद्रकुमार जैन
बहुत भावपूर्ण...मन को छूती हुई रचना.
लगा जैसे क़दमों के वो निशान
क़दम-ताल करते चले आए हैं,
फिर एक बार...बचपन की यादों का
कारवाँ लेकर....भावुक हो गया हूँ मैं !
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धन्यवाद
डा.चंद्रकुमार जैन
बहुत भावपूर्ण...मन को छूती हुई रचना.
लगा जैसे क़दमों के वो निशान
क़दम-ताल करते चले आए हैं,
फिर एक बार...बचपन की यादों का
कारवाँ लेकर....भावुक हो गया हूँ मैं !
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धन्यवाद
डा.चंद्रकुमार जैन
apne purane din hamesha hi gungunate hain zindgi main
yahi sach hai kimti bhi hai ki wo yaaden hamesha bani rahe
ज़मीन से जुड़े हम जैसे लोग और उनका अतीत… काश उन पगडंडियों को कभी सड़क निगल न ले।
खूबसूरत।
शुभम।
आपने सही कहा, वो निशान न तो मिटे हैं और न ही मिट सकते हैं।
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