उस आधी रात को,
एक जगी हुई कॉम ने,
उतार फेंकी गुलामी की घंटियाँ,
अपने गले से,
और काट डाली,
जंजीरें अपने पैरों से,
मिला, सालों की तपस्या का वरदान - आजादी ।
उम्मीद थी कि जल्दी ही उतर जायेगी,
रात की चादर,
और जागेगी एक नयी सुबह-
सपनो की , उम्मीदों की, उजालों की ।
मगर रात.....
रात कटी नही अबतक,
अँधेरा तारी है, सन्नाटा भारी है,
नज़र आते हैं इन अंधेरों में भी मगर,
किसानो के बच्चे जो भूखे सो गए,
गरीब बेघर कितने
वहाँ पडे फुटपाथों पे , चीथड़ों में,
सुनायी पड़ती है इन सन्नाटों में भी,
आहें उन नौजवानों की,
जिनके कन्धों पर भार हैं , मगर "बेकार"हैं,
चीखें उन औरतों की,
जो घरों में हैं, घर के बाहर हैं,
वासना भरी नज़रों का झेलती रोज बलात्कार हैं,
चकलों में, चौराहों में शोर है,
ज़ोर है- ज़ोर का राज है,
हैवान सडकों पर उतर आये,
सिम्हासनों पर विराज गए,
अवाम सो गयी,
नपुंसक हो गयी कॉम,
हिंदुवों ने कहीँ तोड़ डाली मस्जिदें,
तो मुसलमानो ने जला डाले मंदिर कहीँ,
किसी बेबस माँ ने बेच दी अपनी कोख कहीँ तो,
किसी दरिन्दे बाप ने नोच डाला,
अपने ही लक्ते-जिगर को,
उफ़ ये अँधेरा कितना कारी है
अँधेरा तारी है, सन्नाटा भारी है,
इन अंधेरों की धुंध में भी कहीँ मगर,
चमक जाते हैं कुछ जुगनू रहत बन कर,
और कुछ मुट्टी भर सितारे,
चमक रहे हैं यूं तो ,
मेरे भी मुल्क के आसमान पर,
मगर फिर भी,
अँधेरा तारी है, सन्नाटा भारी है,
जुगनू नही, तारे नही,
आफताब चाहिऐ,
जिसकी रौशनी में चमक उठे,
जर्रा जर्रा, चप्पा चप्पा,
जिसकी पुकार से नींद टूटे,
सोयी रूहों की,
पंछियों को गीत मिले,
बच्चों को खुला आसमान दिखे,
उस सुबह के आने तक,
उस सूरज के उगने तक,
आओ जलाए रखे,
उम्मीदों के दिए,
जुगनू बने, सितारे बने,
हम सब एक रौशनी बन कर,
मुकाबला करें,
इस अँधेरी रात का,
नींद से जागो, अभी जंग जारी है,
अँधेरा तारी है, सन्नाटा भारी है।
13 टिप्पणियां:
सजीव जी बहुत सुन्दर पक्तिंयाँ है...
उस सुबह के आने तक,
उस सूरज के उगने तक,
आओ जलाए रखे,
उम्मीदों के दिए,
जुगनू बने, सितारे बने,
हम सब एक रौशनी बन कर,
मुकाबला करें,
इस अँधेरी रात का,
नींद से जागो, अभी जंग जारी है,
अँधेरा तारी है, सन्नाटा भारी है।
अच्छा लगा पढ़कर...
आजादी के साठ वर्ष आपको बहुत-बहुत मुबारक हों...
सुनीता(शानू)
बढ़िया रचना. स्वतंत्रता दिवस की बहुत बधाई.
कविता बहुत रोचक है कुछ हदतक सच भी…
किंतु ये देखने की दृष्टि उसी आजादी के कारण मिली है…
संसार का कोई भी ऐसा देश नहीं जिसमें यह सब परेशानी सामने खड़ी नहीं होती… जज्बा होना है इसे दूर करने का… Not Only Complaining.
यथार्थ और सुंदर रचना ।
after a long time something from you to read
one day we all should be " independent " even from problems
sajeev ji bahut hi badhiya rachna hai सुनायी पड़ती है इन सन्नाटों में भी,आहें उन नौजवानों की,जिनके कन्धों पर भार हैं , मगर "बेकार"हैं,चीखें उन औरतों की,जो घरों में हैं, घर के बाहर हैं,वासना भरी नज़रों का झेलती रोज बलात्कार हैं,चकलों में, चौराहों में शोर है,ज़ोर है- ज़ोर का राज है,हैवान सडकों पर उतर आये,सिम्हासनों पर विराज गए,अवाम सो गयी,नपुंसक हो गयी कॉम,हिंदुवों ने कहीँ तोड़ डाली मस्जिदें,तो मुसलमानो ने जला डाले मंदिर कहीँ,किसी बेबस माँ ने बेच दी अपनी कोख कहीँ तो,किसी दरिन्दे बाप ने नोच डाला,अपने ही लक्ते-जिगर को,उफ़ ये अँधेरा कितना कारी हैअँधेरा तारी है, सन्नाटा भारी है,इन अंधेरों की धुंध में भी कहीँ मगर,चमक जाते हैं कुछ जुगनू रहत बन कर,और कुछ मुट्टी भर सितारे,चमक रहे हैं यूं तो ,मेरे भी मुल्क के आसमान पर,मगर फिर भी,अँधेरा तारी है, सन्नाटा भारी है,जुगनू नही, तारे नही,आफताब चाहिऐ,जिसकी रौशनी में चमक उठे,जर्रा जर्रा, चप्पा चप्पा,जिसकी पुकार से नींद टूटे,सोयी रूहों की,पंछियों को गीत मिले,बच्चों को खुला आसमान दिखे,उस सुबह के आने तक,उस सूरज के उगने तक,आओ जलाए रखे,उम्मीदों के दिए,जुगनू बने, सितारे बने,हम सब एक रौशनी बन कर,मुकाबला करें,इस अँधेरी रात का,नींद से जागो, अभी जंग जारी है,अँधेरा तारी है, सन्नाटा भारी है।
bahut khoob ..daad kabool karein
बढिया..सुन्दर रचना..जश्ने आजादी पर..
Bhaut achhi tarha se pesh kiya hai
दिल की कलम से
नाम आसमान पर लिख देंगे कसम से
गिराएंगे मिलकर बिजलियाँ
लिख लेख कविता कहानियाँ
हिन्दी छा जाए ऐसे
दुनियावाले दबालें दाँतो तले उगलियाँ ।
NishikantWorld
सजीव जी,
समाज के चेहरे से नकाब उतारती हुई एक रचना... परन्तु इस नकाब को बनाने में हम सब की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता...
सजीव जी मै आप से माफ़ी मांगना चाहता हू मैंने आप की पोस्ट एक सन्देश देने में प्रयोग में ली लेकिन मै कर भी क्या सकता था जो सब्दो का खजाना आप के पास है जो सच्चाई आप के पास है वो ही मुझे सही लगी, सन्देश अगली पोस्ट में दल रहा हू कृपया हो सके तो माफ़ कर देना वैसे सन्देश निजी था >
जय हिंदी, जय भारत, जय हिंद के सेना, जय जवान जय किसान .......क्या बस ये नारे लगा के हम इतिश्री कर सकते है क्या कुछ और करने की जरुरत नहीं है ?
आजादी। एक शब्द जो हमें अहसास दिलाता है हम पर किसी और का नहीं बल्कि हम पर हमारा ही शासन है। लेकिन क्या सचमुच??? क्या सच में आजादी की लंबी डगर से चलकर हम उस अवस्था तक आ गए हैं जहाँ वास्तव में प्रगतिशील कहला सकें?
उस आधी रात को,
एक जगी हुई कॉम ने,
उतार फेंकी गुलामी की घंटियाँ,
अपने गले से,
और काट डाली,
जंजीरें अपने पैरों से,
मिला, सालों की तपस्या का वरदान - आजादी ।
उम्मीद थी कि जल्दी ही उतर जायेगी,
रात की चादर,
और जागेगी एक नयी सुबह-
सपनो की , उम्मीदों की, उजालों की ।
मगर रात.....
रात कटी नही अबतक,
अँधेरा तारी है, सन्नाटा भारी है,
नज़र आते हैं इन अंधेरों में भी मगर,
किसानो के बच्चे जो भूखे सो गए,
गरीब बेघर कितने
वहाँ पडे फुटपाथों पे , चीथड़ों में,
सुनायी पड़ती है इन सन्नाटों में भी,
आहें उन नौजवानों की,
जिनके कन्धों पर भार हैं , मगर "बेकार"हैं,
चीखें उन औरतों की,
जो घरों में हैं, घर के बाहर हैं,
वासना भरी नज़रों का झेलती रोज बलात्कार हैं,
चकलों में, चौराहों में शोर है,
ज़ोर है- ज़ोर का राज है,
हैवान सडकों पर उतर आये,
सिम्हासनों पर विराज गए,
अवाम सो गयी,
नपुंसक हो गयी कॉम,
हिंदुवों ने कहीँ तोड़ डाली मस्जिदें,
तो मुसलमानो ने जला डाले मंदिर कहीँ,
किसी बेबस माँ ने बेच दी अपनी कोख कहीँ तो,
किसी दरिन्दे बाप ने नोच डाला,
अपने ही लक्ते-जिगर को,
उफ़ ये अँधेरा कितना कारी है
अँधेरा तारी है, सन्नाटा भारी है,
इन अंधेरों की धुंध में भी कहीँ मगर,
चमक जाते हैं कुछ जुगनू रहत बन कर,
और कुछ मुट्टी भर सितारे,
चमक रहे हैं यूं तो ,
मेरे भी मुल्क के आसमान पर,
मगर फिर भी,
अँधेरा तारी है, सन्नाटा भारी है,
जुगनू नही, तारे नही,
आफताब चाहिऐ,
जिसकी रौशनी में चमक उठे,
जर्रा जर्रा, चप्पा चप्पा,
जिसकी पुकार से नींद टूटे,
सोयी रूहों की,
पंछियों को गीत मिले,
बच्चों को खुला आसमान दिखे,
उस सुबह के आने तक,
उस सूरज के उगने तक,
आओ जलाए रखे,
उम्मीदों के दिए,
जुगनू बने, सितारे बने,
हम सब एक रौशनी बन कर,
मुकाबला करें,
इस अँधेरी रात का,
नींद से जागो, अभी जंग जारी है,
अँधेरा तारी है, सन्नाटा भारी है।
जय हिंदी, जय भारत, जय हिंद के सेना, जय जवान जय किसान .......क्या बस ये नारे लगा के हम इतिश्री कर सकते है क्या कुछ और करने की जरुरत नहीं है ?
आजादी। एक शब्द जो हमें अहसास दिलाता है हम पर किसी और का नहीं बल्कि हम पर हमारा ही शासन है। लेकिन क्या सचमुच??? क्या सच
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