उन खामोश वादियों में,
किसी शांत सी झील पर,
जब लुढ़क कर गिरता है,
कोई पत्थर, किसी पहाडी से,
तो उसे लगता है-
कहीं बम फटा...
वह दोनों कानों पर हाथ रखकर,
चीखता है , और सहम कर सिमट जाता है,
अपने अंधेरों में,
अंधेरे - जो पाले हैं उसने,
अपनी आखों में,
अंधेरे - जो बहते हैं उसकी रगों में,
उसकी बंद ऑंखें,
कभी खुलती नही रोशनी में,
एक बार देखी थी, उजाले में मैंने,
वो ऑंखें,
"ऐ के ४७" की गोलियों के सुराख थे उसमें,
धुवाँ सा जल रहा था,
उस पथरीली जमीं पर,
कोई लहू का कतरा न था,
मगर कल रात जब वो,
कुरेद रहा था मिटटी,
मसल रहा था फूल पत्तियों को,
बेदिली से तब,
हाँ तब... उसकी उन आखों से बहा था,
खौलते लावे सा,
गर्म "सुलगता दर्द..."
9 टिप्पणियां:
कुरेद रहा था मिटटी,
मसल रहा था फूल पत्तियों को,
बेदिली से तब,
हाँ तब... उसकी उन आखों से बहा था,
खौलते लावे सा,
गर्म "सुलगता दर्द..."
बहुत खूब संजीव जी !
bahot khoobsoorat lekin ek dard de gayi ye nazm...
बहुत अच्छे भाव हैं संजीव जी .... सही मैं ये ऐसा दर्द है जो लगातार सुलग रहा है और कितने ही मासूम जल रहे हैं ...ऐसे ही संवेदनशील मुद्दे अपनी संवेदनशील लेखनी से उठाते रहिये !!
दिव्य प्रकाश
दर्द को समेटे हुए बेहतरीन लाइने हैं...
बहुत दर्दनाक. कश्मीर पर सुंदर कविता.
सजीव जी बहुत ही संवेदनशील,सशक्त और सार्थक कविता आप की कलम से। हमारी अपेक्षाओं पर खरी उतरी। बहुत सुंदर
khoobsurat par dard se bhari
बेहतरीन भाई.
उसकी बंद ऑंखें,
कभी खुलती नही रोशनी में,
एक बार देखी थी, उजाले में मैंने,
वो ऑंखें,
"ऐ के ४७" की गोलियों के सुराख थे उसमें
पूरी रचना अपने आप मे मुकम्मल है ओर कही गहरे तक असर छोड़ जाती है.......
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