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22.10.07

परदेस में तेरी यादें

परदेस में तेरी यादें,
पागल करती है मन को,
क्या कभी सच होगा वो ख्वाब,
जो हमने बुना था .

मुझे याद है आखिरी बार,
जब तुम मेरे साथ चल रही थी,
बुझी हुई उदास ऑंखें,
बिन बोले, बहुत कुछ कह रही थी,
मैंने हाथ हिला कर तुमसे विदा कहा,
तुम्हारे भी हाथ उठे,
मगर चहरे को छुपाकर, आंसू बहने के लिए.

मैं तुमसे बहुत दूर,
तुम्हारी आँखों से ओझिल हो गया,
तब मुझे याद है ,
तुमने जोर से मुझे आवाज़ दी थी,
तुम्हारी पुकार,
कोई भी न सुन सका था,
सिर्फ़, मेरे कानों ने सुना था....

6 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

दिल की गहराई से उठते भाव-अच्छे बांधे हैं.

राकेश खंडेलवाल ने कहा…

जब तुम मेरे साथ चल रही थी,
बुझी हुई उदास ऑंखें,
बिन बोले, बहुत कुछ कह रही थी,

खूबसूरती से लिखा है.

Manish Kumar ने कहा…

सजीव तुम्हारी पिछली कविताओं की अपेक्षा ये कविता कुछ फीकी सी लगी..प्रेम और विरह की धूप छाँव में तुम और गहरे गोते लगा सकते थे.

रंजू भाटिया ने कहा…

मैं तुमसे बहुत दूर,
तुम्हारी आँखों से ओझिल हो गया,
तब मुझे याद है ,
तुमने जोर से मुझे आवाज़ दी थी,
तुम्हारी पुकार,
कोई भी न सुन सका था,
सिर्फ़, मेरे कानों ने सुना था....


बहुत ही सुंदर लिखा है सजीव जी आपने

अजित वडनेरकर ने कहा…

अच्छी कविता है।

डाॅ रामजी गिरि ने कहा…

"मैं तुमसे बहुत दूर,
तुम्हारी आँखों से ओझिल हो गया,
तब मुझे याद है ,
तुमने जोर से मुझे आवाज़ दी थी,"

रोजी-रोटी और प्रेम-विरह का ये द्वंद तो सदियों पुराना है और आपने इसे अपनी लेखनी से बखूबी उभारा है.