' माँ दिवस ' के उपलक्ष्य पर संसार की समस्त माँओं को सप्रेम समर्पित है ये कविता
"माँ"
कितना छोटा मगर
कितना महान है ये लफ्ज़
इस लफ्ज़ में छुपी हैं
वो दो ऑंखें,
जो देखती हैं हमे हर पल,
जिनके सपनो में बसें है
हमीं पल पल ।
इस लफ्ज़ में छुपे हैं
दो हाथ ,
जिन्होंने थाम कर उंगली
चलना सिखाया,
भूख लगी जब निवाला खिलाया,
जब गिरे हम तो बढ कर उठाया,
रातों को थपथपाकर सुलाया,
इस लफ्ज़ में छुपा है बचपन,
ममता का आंगन,
निस्वार्थ प्रेम का दर्पण -
माँ ही तो है,
पूजा का दीप पावन -
माँ ही तो है।
बदनसीब हैं वो जिनसे ये दूर हुईं ,
पर उनकी किस्मत हाय
जो इनसे हुए पराये ।
8 टिप्पणियां:
सुंदर भाव!!
संजीव जी माँ का बहुत सुंदर चित्रण किया है आपने,...
सच है वो बदनसीब हैं जो माँ के होते हुए भी उसे भूले बैठे है,..
सुनीता(शानू)
माँ"
कितना छोटा मगर
कितना महान है ये लफ्ज़
इस शब्द ने ही सब कुछ कह दिया है। बहुत अच्छी कविता है।
बढ़िया है!
"बदनसीब हैं वो जिनसे ये दूर हुईं ,
पर उनकी किस्मत हाय
जो इनसे हुए पराये ।"
माँ का एहसान ,जो संताने जीवन मे कभी नही चुका सकती ।यह सच है कि आज माँ के प्रति कुछ का रवैया ठीक नही है। पर भाई! माँ तो माँ ही है।वह तो सभी पर अपनी ममता लुटाती रहती है।
इस लफ्ज़ में छुपे हैं
दो हाथ ,
जिन्होंने थाम कर उंगली
चलना सिखाया,
भूख लगी जब निवाला खिलाया,
जब गिरे हम तो बढ कर उठाया,
रातों को थपथपाकर सुलाया,
bahut sundar bhaav hain
Dost teri ye line dil ko chhu gayi.
Maa ko samajhen wala hi ayasa kuchh likh sakta hai
'इस लफ्ज़ में छुपी हैं
वो दो ऑंखें,
जो देखती हैं हमे हर पल,
जिनके सपनो में बसें है
हमीं पल पल।'
बहुत अच्छा चित्रण.
माँ के बारे मै जीता कहा जाये कम हैं.
एक टिप्पणी भेजें