मेरे सपनों के पौधे ,
विशाल क्षितिज के नीचे,
बड़ते चले जाते हैं,
बेख़ौफ़,
अपनी सीमाओं से परे,
विशाल क्षितिज के नीचे ।
और आशाओं का अथाह , अनंत ,
समुन्दर ,
आँखों में उमड़ने लगता है,
उम्मीदों के प्रवासी पंछी,
लौट आते हैं -
फिर अपने घरौंधों में,
शाखों से हरियाली बरसती है ।
सभी बंधनों , सभी दायरों ,
को तोड़कर ,
उड़ने की प्यास व्याकुल करती है ,
फिर जब तपती हुई रेत नर्म पड़ती है,
और सूरज अंधेरों में समां जाता है तो,
एक नयी सुबह की तलाश में ,
मन पागल भटकता है,
विशाल क्षितिज के नीचे ।
5 टिप्पणियां:
जब मन ही विशाल है तो लगन अनंत होनी ही चाहिए…यह कविता एक सीख है…सुंदर!!!
मन पागल भटकता है,
विशाल क्षितिज के नीचे ।
--यही मन की प्रवृति है. सुन्दर कविता.
संजीव जी, सुन्दर रचना है। सुन्दर भाव हैं।मन तो ऎसा ही होता है-
सभी बंधनों , सभी दायरों ,
को तोड़कर ,
उड़ने की प्यास व्याकुल करती है ,
बहुत सुंदर मन की उड़ान तो एसी होती है जिसे पकड़ या छू पाना बहुत मुश्किल है मगर आपने कितने खूबसूरत तरीके से मन को बान्धने की कोशीश कि है ताकि कल एक नई सुबह हो और फ़िर एक नई उड़ान,..बेहतरीन रचना
सपने देखने का हक सबको है । सपने ना हों तो जीवन नीरस हो जाएगा ।
हर रोज़ आस टूटती है
हर रोज़ एक आस बँध जाती है ।
ज़ीवन की नाव
बढ़ती चली जाती है ।
इसलिए सपने अवश्य देखें और हो सके तो रंगीन सपने देखें ।
शुभकामनाओं सहित
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