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2.5.07

एक ग़ज़ल और तुम

दस साल बीत गए , याद है क्या तुम्हे , सहारनपुर कि वो सर्दियाँ , दोपहर को जब धूप गुनगुनी आंगनमे आती थी , तुम भी चली आती थी । बैठे रहते थे हम पहरों युहीं चुप चाप खामोश , मगर कितनीसारी बातें हो जाती थी और समय जाने कैसे गुजर जाता था ..... समय तो अब बहुत आगे निकल चूका है ... मगर वो पल आज भी महकते हैं मेरी यादों में .... इस ग़ज़ल की तरह ....


ये खामोशी ये झुकी नज़र

वक़्त जैसे गया ठहर


चेहरे पर ये धूप जैसे

करवटें लेता पहर


खेतों की पहली फसल सी

खिलती ये कमसिन उमर


तेरी खुश्बू से खिले हैं

फूल हर राहे - गुजर


हाल तेरा पूछे मुझसे

रास्ते का हर शजर


आसमान तुम सा मिला तो

बस गया दिल का शहर


बेखुदी ही बेखुदी है

रात दिन शामों सहर


जागती आँखों में चलता

ख्वाब सा है ये सफ़र


साथ मेरे तुम चलो तो

है किनारा हर लहर

6 टिप्‍पणियां:

राकेश खंडेलवाल ने कहा…

अच्छा खयाल है

Divine India ने कहा…

बहुत उम्दा हैं विचार आपके…गजल भी सुंदर बन पड़ी है…।

Mohinder56 ने कहा…

सुन्दर भाव भरी रचना है...हमें पसन्द आयी...लिखते रहिये

अनूप भार्गव ने कहा…

बढिया है ....

Udan Tashtari ने कहा…

बढ़िया है, बहुत खूब. बधाई!!

Gee ने कहा…

शुक्रिया...आपका ब्लॉग देखा, बहुत उम्दा है