चाह का जूनून में बदल जाना,
अकस्मिक तो हरगिज नहीं था.
अपूर्ण आकांक्षाओं ने तलाशा था उसे,
संचित पीडाओं ने तराशा था उसे,
सिन्दूरी शाम का अमावस्या में ढल जाना,
अकस्मिक तो हरगिज नहीं था.
कोई अतृप्त प्यास कहीं रही होगी,
किसी मनहूस मरीचिका में बही होगी,
तृष्णा का यूँ वितृष्णा से निकल आना,
अकस्मिक तो हरगिज नहीं था.
कोई कुंठा का नाग डस कर गुजरा होगा,
किसी निराशा का जहर नसों में पसरा होगा,
सुगबुगाहटों का यूँ चीत्कारों से छिल जाना,
अकस्मिक तो हरगिज नहीं था.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें