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12.3.12

वो कागज़ का जर्द पुर्जा

वो कागज़ का जर्द पुर्जा,
जो बहुत कोशिशों के बावजूद कभी नहीं मिला था,
एक दिन दिखा अचानक,
जाने क्यों एक उम्मीद जगी थी,
वो लिखावट जैसे आज भी कुछ कह रही थी,
कितने हाथों में थमाकर उसे
मुहँ देखा किये,
कितने इशारे, अंधी सड़कों के,
कितने घुमावदार फेरे,
तपती धूप में, नंगे सर हम,
पहुंचे उस गली में जिसके मोड पर था –
तुम्हारा घर,
पर तुम नहीं, एक ताला था फकत,
दरवाज़े पर लटका हुआ,
जिसकी उदास आँखों में था अब भी वो मंजर,
जब तुमने जाते हुए मुड कर देखा था उसे....

जाने क्यों एक उम्मीद जगी थी,
जाने क्यों हमें बहका दिया था,
उस कागज़ के जर्द पुर्जे ने....

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