कुछ सुनहरे सुरीले शब्दों को जोड़कर
मैं भी लिखता एक नाज़ुक सी कविता,
तुम्हारे लिए...
पर मेरी शब्दावली में तो ऐ दोस्त,
फकत ये तल्खियाँ है,
न गुल है न चाँद है,
न जुगनू हैं न तितलियाँ है,
बस कुछ उखड़े, उजड़े,
रूखे सूखे लफ़्ज़ों की गुठलियाँ है,
मेरे मिजाज़ में बस सोज़ है, कोई साज़ कहाँ,
एक धुंधली सी ख़ामोशी है, आवाज़ कहाँ,
मैं खिज़ां की बयार हूँ आखिर, सुहास कहाँ से लाऊं,
जो चाहत के सुरों से छलके, वो मिठास कहाँ से लाऊं,
मैं तीरगी में पला हूँ, नफरतों से छिला हूँ,
जीस्त के हर मोड पर, गुनाहों से सिला हूँ,
बस इतना कहता हूँ कि -
तुम्हारी आँखों के उजालों को,
मै कर नहीं पाता हूँ बरदाश्त
क्या इसे ही तुम कविता कहती हो....
2 टिप्पणियां:
बहुत खूब ,शानदार ,बेहतरीन
बहुत खूब,बेहतरीन
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