जेठ का महीना और सूरज की गुगली ,
गर्म लू करे - धूप की चुगली ।
ए सी और कूलर को ठेंगा दिखाती , मुंडेर पे बैठी दुपहरी ,
छाँव को ढूंढे कुकुर , दो बूँद जल को गिलहरी ।
चवालीस, पैतालीस , चैयालीस, लगता है लगेगी हाफ सेंचुरी भी,
तपते तवे सा तापेगा आसमान , आग उगलेगी जमी भी ।
कर्फ्यू सा लगा सडकों पर , चढा जो मौसम का पारा ,
औंधे मुह गिरा सेंसेक्स भी, ठप्प पड़ा कामकाज सारा ।
एक ये कवि मन है , जिसे इस गरमी में भी चैन नही,
काँधे पर डाले कविता कि पोटली , ढूंढे ये नित ठौर नयी ।
- हाय री दिल्ली , तेरी गरमी को सलाम
3 टिप्पणियां:
एक ये कवि मन है , जिसे इस गरमी में भी चैन नही,
काँधे पर डाले कविता कि पोटली , ढूंढे ये नित ठौर नयी
सबसे सुंदर पक्तिंया लगी..कवि मन पागल ही तो होता है...ना सर्दी में चैन ना गर्मी में आराम,
सुनीता(शानू)
गरमी की बैचेनी का चित्रण कवि मन बहुत सुंदरता से कर गया, बधाई.
सजीव जी.
इंडिया हेबिटाट सेंटर में आपनें जब इस रचना का वाचन किया था, मैं बेहद प्रभावित हुआ था। बहुत ही सुन्दरता से आपने अभिव्यक्त किया है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
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